SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [211] आचार्य राजशेखर को अपने अर्थहरण के प्रमुख चार भेदों में से तीन प्रतिबिम्बकल्प, आलेख्यप्रख्य और तुल्यदेहितुल्य का आधार यहीं (आनन्दवर्धन के 'ध्वन्यालोक') से प्राप्त माना जा सकता है। किन्तु यह बात ध्यान देने की है कि आचार्य आनन्दवर्धन कवियों द्वारा दूसरों से अर्थ लिए जाने को नहीं, किन्तु कवियों में बुद्धि सादृश्य को महत्व देते हैं। आचार्य राजशेखर और आचार्य आनन्दवर्धन दोनों के क्षेत्र भी अलग अलग थे। राजशेखर का अभिप्राय कवियों को शिक्षा देने से था इसी कारण उनका विवेच्य विषय रहा–यदि दूसरों के अर्थों का आधार ग्रहण करके काव्यरचना की जाए तो किस किस रूप में। किन्तु आचार्य आनन्दवर्धन का अभिप्राय महाकवियों से, पूर्ण अभ्यस्त कवियों से था। काव्यात्मा ध्वनि उनके विवेचन का विषय था, इस कारण उन्होंने दूसरों से अर्थ ग्रहण करने को नहीं स्वीकार किया। दूसरों के अर्थ ग्रहण करना तो केवल प्रारम्भिक कवियों का कार्य है। यदि अभ्यस्त कवियों के काव्यों में भी पूर्व अर्थों से समानता दिखलाई दे तो इसका कारण महाकवियों का बुद्धि सादृश्य है दूसरों से उन्होंने अर्थग्रहण किया है या करते हैं इस विषय से आनन्दवर्धन अपना क्षेत्र ही अलग होने के कारण अलग ही रहे। अर्थहरण के तीन भेदों का आधार आनन्दवर्धन से ग्रहण किया गया यह माना जा सकता है किन्तु यह भी स्वीकार करना होगा कि आधार आनन्दवर्धन से ग्रहण करने पर भी आचार्य राजशेखर का विवेचन संदर्भ आनन्दवर्धन से पृथक ही रहा। कवियों को शिक्षा देना ही उनका उद्देश्य था। कवि प्रयत्नपूर्वक दूसरों के अर्थ ग्रहण करके अभ्यास करते हैं ऐसी उनकी मान्यता थी। उनमें से किस प्रकार का अर्थग्रहण उपादेय है और किस प्रकार का हेय कवि को शिक्षा देने के उद्देश्य से यह उनका प्रमुख विवेचन का विषय रहा। अर्थहरण के भेदों का मूल रूप कहीं और उपस्थित रहने पर भी हरण तथा उपजीवन सम्बन्धी सम्पूर्ण अध्याय कविशिक्षा से सम्बद्ध विषय पर आचार्य राजशेखर का अपना महत्वपूर्ण विवेचन और अर्थहरण के सभी भेद उनकी मौलिक उद्भावनाएं भी हैं। उन्होंने कहा है कि अर्थहरण के भेदों की उद्भावना उन्होंने स्वयं की है। यहाँ पर उनके इस कथन को आचार्य आनन्दवर्धन के अर्थसादृश्य के भेदों को सामने रखते हुए खंडित किया जा सकता था। किन्तु आचार्य आनन्दवर्धन से नामग्रहण करने पर भी उन नामों का हरण सम्बन्धी विषय से सम्बन्ध जोड़ना राजशेखर की अपनी मौलिकता तथा नवीनता है , तथा चतुर्थ परपुरप्रवेशसदृश नामक भेद तथा चारों अर्थहरणों के सभी अवान्तर भेद आचार्य राजशेखर
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy