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निवेदन
आचार्य राजशेखर की 'काव्यमीमांसा' काव्यविद्या के गम्भीर विषयों की विवेचिका है। अत:
'गागर में सागर' इस उक्ति को चरितार्थ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। आचार्य भामह से लेकर आचार्य आनन्दवर्धन तक की काव्यशास्त्रीय विचारधाराओं से आचार्य राजशेखर लाभान्वित हुए थे, संस्कृत वाइमय की सभी शाखाओं पर सूक्ष्म तथा वैज्ञानिक विवेचना की परम्परा उनके समक्ष उपस्थित थी। ऐसे समय में सभी विचारधाराओं का अपने प्रतिभा के प्रभाव से समन्वय करते हुए उन्होंने काव्यशास्त्र के विभिन्न विषयों की सूक्ष्म विवेचनाओं हेतु अनेक मौलिक उद्भावनाओं सहित 'काव्यमीमांसा' की रचना की। यह ग्रन्थ काध्यविद्या के शिष्यों के हित के लिए रचित है। विविध तथ्यों
की सारविवेचना करने वाली 'काव्यमीमांसा' की सत्रशैली के कारण ही उसके 'कविरहस्य' नामक
प्रथम अधिकरण में ही कविशिक्षा से सम्बद्ध प्रायः सभी विषयों का अन्तर्भाव दृष्टिगत होता है। इस ग्रन्थ का नामकरण भी इसको मीमांसाग्रन्थों के समान ही महत्व प्रदान करता हुआ प्रतीत होता है। काव्य तथा साहित्यविद्या का विविध तर्कों से युक्त सारगर्भित सूक्ष्म विवेचन काव्यविद्या के अधिकारी शिष्यों को इन विषयों का पूर्ण ज्ञान प्रदान करता है। जिस प्रकार दार्शनिक ग्रन्थों में वर्णित ब्रह्म और माया का सम्यक् ज्ञान मोक्ष का साधन बनकर दार्शनिकों के ध्येय की पराकाष्ठा बनता है, उसी प्रकार काव्यपुरुष तथा साहित्यविद्या के सम्यक् ज्ञान को आचार्य राजशेखर ने ऐहलौकिक सुख का ही नहीं, परमपुरुषार्थ मोक्ष का भी साधन बताया है।
काव्य तथा उससे सम्बद्ध विद्याओं को सम्मान की पराकाष्ठा तक पहुँचाने वाले, काव्यविधा के जिलासु शिष्यों के लिए काव्यनिर्माण के ज्ञान के असंख्य द्वारों के उद्घाटनकर्ता तथा अपने ही मौलिक विषयों के आलोक से स्वतः आलोकित ग्रन्थ की समालोचना हेतु शोधप्रबन्ध प्रस्तुत करने का कार्य इस प्रकार का है जैसे प्रवल झञ्झावात में आवद्ध कोई दुस्साहसी दीपक अपने न्यूनतम टिमटिमाते प्रकाश से
सूर्य और चन्द्र के मार्ग को प्रकाशित करने का दम्भ भरे, तथापि इस ग्रन्थ को अन्य काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों से