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हैं। अत: हरण का व्यापक विवेचन ही सिद्ध करता है कि उसका अनौचित्य नहीं है- भले ही उसका औचित्य केवल प्रारम्भिक कवियों की दृष्टि से ही हो। यह और ही प्रसंग है कि काव्यक्षेत्र में हरण अपने सामान्य रूप में प्रारम्भिक कवियों की दृष्टि से अनुचित न होते हुए भी अपने विभिन्न विशिष्ट रूपों से भी युक्त है और इन विभिन्न विशिष्ट भेदों में से कुछ उचित परिलक्षित होते हैं और कुछ औचित्य की सीमा से हट जाने के कारण अनुपादेय स्वरूप वाले हैं। इस कारण हरण का उसके भेदोपभेदों सहित व्यापक विवेचन-इसी उद्देश्य को दृष्टि में रखकर है कि कवि को इस बात का ज्ञान हो जाए कि यद्यपि हरण का काव्य क्षेत्र में अनौचित्य तो नहीं है किन्तु उसके अवान्तर भेद औचित्य, अनौचित्य दोनों से युक्त हैं। कुछ अवान्तर भेदों को अपनाना कवि के काव्य के लिए लाभकारी हो सकता है तो कुछ को अपनाना अनुचित । राजशेखर द्वारा हरण के परित्याज्य और अनुग्राह्य दो प्रकार के भेद इसी दृष्टि से किए गए हैं। अनुग्राह्य भेदों की भी विवेचना हरण के औचित्य को, सिद्ध करती है। इस प्रकार हरण के औचित्य को, उसके अवान्तर भेदों के औचित्य, अनौचित्य को जानकर कवि प्रारम्भिक अवस्था में काव्यनिर्माण के अभ्यास की ओर अग्रसर हो सकते हैं। राजशेखर के हरण विवेचन का मूल एवं हरण-विवेचक पश्चाद्वर्ती आचार्य :
'काव्यमीमांसा' कवि शिक्षा विषयक सर्वप्रथम विस्तृत ग्रन्थ है और हरण विवेचन सबसे विस्तृत तथा सुनियोजित रूप में सर्वप्रथम आचार्य राजशेखर द्वारा ही प्रस्तुत किया गया है। आचार्य राजशेखर से बहुत पूर्व आचार्य वामन ने भी अयोनि और अन्यच्छाया योनि अर्थ को स्वीकार किया है।2 अन्यच्छायायोनि अर्थ का राजशेखर के हरण विवेचन से सम्बन्ध जोड़ते हुए आचार्य वामन से ही उपजीवन के विचार का प्रारम्भ माना जा सकता है, किन्तु वामन द्वारा किसी अन्य की छाया पर रचित
काव्यार्थ का नाम मात्र से निर्देश किया गया है। कविशिक्षा से सम्बद्ध रूप में उपजीवन की व्यापक
1 'परप्रयुक्तयोः शब्दार्थयोरूपनिबन्धो हरणम्। तद्विधा परित्याज्यमनुग्राह्य च'
(एकादश अध्याय) काव्यमीमांसा - (राजशेखर)
2 अर्थो द्विविधोऽयोनिरन्यच्छायायोनिश्च
अयोनिः अकारण: अवधानमात्रकारण इत्यर्थः अन्यस्य काव्यस्य छाया तद्योनि: (3/2/7)
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति (वामन)