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जगत् के कवि उनके सौन्दर्यातिशय से सम्बद्ध, किन्तु असत् रूप को ही अपनाते रहे क्योंकि काव्य में सुन्दरम् का भाव निहित होता है। कवि सदा सौन्दर्यप्रेमी होते हैं। साथ ही काव्य शिवम्, सुन्दरम् से अधिक सम्बद्ध होता है, सत्यं से कम।
'व्यक्ति विवेक' के रचयिता महिमभट्ट का विचार है कि शब्द अर्थ के व्यवहार में विद्वानों को लौकिक क्रम का अनुसरण करना चाहिए। लोक के आदरणीय वे ही शब्दार्थ हैं जो लोकक्रम के अनुसार हों, अन्यथा लोक की रस प्रतीति में बाधा हो जाती है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठता है कि अशास्त्रीय, अलौकिक कविसमयों में ऐसी क्या विशेषता है कि उनका निबन्धन लोक की रस प्रतीति में बाधक नहीं बनता। केवल लौकिक क्रम के अनुसरण करने वाले शब्दार्थों से ही रसास्वाद प्रतीति करने में समर्थ लोक इन अशास्त्रीय, अलौकिक अर्थों से रसास्वाद कैसे कर लेता है? अवश्य ही यह अर्थ अपने इसी रूप में रस के विशेष उपकारक होंगे।
अतिशयोक्ति आदि अलंकारों में भी तो साध्य अर्थ को पूर्णतः स्पष्ट करने के लिए अलौकिक अर्थों का सहारा लिया जाता है। कविसमयों के सम्बन्ध में भी कुछ अंशों तक यही बात कही जा सकती है। यहाँ भी साध्य अर्थों के स्पष्टीकरण हेतु ही कवियों ने कुछ अलौकिक अर्थों का सहारा लिया जो क्रमशः परम्परा बनकर सदा उसी रूप में वर्णित होने लगे। अतिशयोक्ति में कवि साध्य अर्थ को स्पष्ट करने के लिए उसी साध्य अर्थ का अतिशयित रूप में वर्णन करता है, किन्तु कविसमय में साध्य अर्थ से भिन्न अर्थ उसके स्पष्टीकरण हेतु अपनाया जाता है, वे कुछ विशिष्ट निश्चित अर्थ हैं जो काव्य जगत् की परम्परा बन गए हैं। अतिशयोक्ति में कोई परम्परा नहीं होती।
कविसमय के वैशिष्टय :- परम्परित रूप, अशास्त्रीयत्व और अलौकिकत्व :
बिना किसी विशिष्ट कारण के कवियों ने कविसमय रूप अर्थों का अशास्त्रीय अलौकिक रूप
क्यों स्वीकार किया? इस प्रश्न का यही समाधान है कि इन विशिष्ट अर्थों के अशास्त्रीय, अलौकिक रूप
1. किञ्च सर्वत्रैव शब्दार्थव्यवहारे विद्वद्भिपि लौकिकक्रमोऽनुसर्तव्यः। लोकश्च मा भूद्रसास्वादप्रतीते : परिम्लानतेति यथाप्रक्रममेवैनमाद्रियते नान्यथा।
व्यक्तिविवेक (महिमभट्ट) (द्वितीय विमर्श)