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के साहसांक राजा का अन्त:पुर संस्कृत भाषामय था। कविशिक्षा के संदर्भ में इस उल्लेख का आशय कवियों की भाषा पर राजाओं के भाषा वैशिष्ट्य का प्रभाव परिलक्षित होने से सम्बद्ध है। काव्यसम्बद्ध भाषा की विभिन्न दृष्टियों से नियमितता केवल किसी विशिष्ट देश अथवा राज्य के आश्रित कवि के लिए ही है, किन्तु विभिन्न भाषाओं के ज्ञाता, विभिन्न देशों में भ्रमणशील स्वतन्त्र कवियों के लिए भाषा
आदि की दृष्टि से किसी देश विशेष अथवा राजा की रुचि को ध्यान में रखना अनिवार्य नहीं है। ऐसे
कवि अपनी इच्छानुसार किसी भी भाषा में काव्यरचना करने के लिए पूर्णतः स्वतन्त्र हैं।
भाषा एवं विषय की दृष्टि से अपनी ज्ञान सीमा की विवेचनशीलता कवि की प्राथमिक आवश्यकता है। किन्तु इसके अतिरिक्त काव्य निर्माण काल में लोकरुचि पर एवं स्वयम् अपने ही विचारों पर दृष्टि डालना भी अनिवार्य है क्योंकि श्रेष्ठ काव्य को लोकरूचि पर आधारित होने के साथ ही कवि के विचार स्वातन्त्र्य से भी सम्बद्ध होना चाहिए। काव्यरचना लोक को लिए ही अधिक होती है, किन्तु लोकहेतु रचित काव्य में जब लोकरुचि का ही ध्यान न रखा गया हो तो उसकी लोकप्रियता की सम्भावना कम हो जाती है। काव्य के परम प्रयोजन यश की प्राप्ति हेतु लोकरूचि से सम्बद्ध विषय अपनाना श्रेयस्कर होने के साथ ही कवि के लिए विचार स्वातन्त्र्य की एवम् आत्मरूचि के अनुरूप विषय स्वीकार करने की भी अनिवार्यता है, क्योंकि कवि के विचार स्वातन्त्र्य सम्पन्न काव्य में ही
स्वभवने हि भाषानियम यथा प्रभुर्विदधाति तथा भवति। श्रूयते हि मगधेषु शिशुनागे नाम राजा, तेन दुरूचारानष्टौं वर्णानपास्य स्वान्तःपुर एव प्रवर्तितो नियमः टकारादयश्चत्वारो मूर्धन्यास्तृतीयवर्जमूष्माणस्त्रयः क्षकारश्चेति। श्रूयते च सूरसेनेषु कुविन्दो नाम राजा, तेन परुषसंयोगाक्षरवर्जमन्तःपुर एवेति समानं पूर्वेण। श्रूयते च कुन्तलेषु सातवाहनो नाम राजा तेन प्राकृतभाषात्मक मन्त:पुर एवेति समान पूर्वेण। श्रूयते चोज्जयिन्यां साहसाङ्को नाम राजा तेन च संस्कृतभाषात्मकमन्तःपुर एवेति समानं पूर्वेण।
काव्यमीमांसा - (दशम अध्याय) 2. "कविः प्रथममात्मानमेव कल्पयेत्। कियान्मे संस्कारः,क्व भाषाविषये शक्तोऽस्मि, किंरुचिर्लोकः परिवृढो वा
कीदृशि गोष्ठयां विनीतः क्वास्य वा चेतः संसजतः इति बुद्ध्वा भाषाविशेषमाश्रयेत" इति आचार्याः 'एकदेशकवेरिय नियमतन्त्रणा स्वतन्त्रस्य पुनरेकभाषावत् सर्वा अपि भाषाः स्युः इति यायावरीयः।
काव्यमीमांसा - (दशम अध्याय)