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रचना केवल प्रारम्भिक अभ्यासी कवि ही करते हैं) का विषय है परिपक्व काव्य का नहीं। कवि का जहाँ भी रसाभिव्यक्ति से तात्पर्य हो वहाँ सर्वत्र ध्वनिकाव्य ही होता है ध्वनि काव्य की रचना पूर्ण परिपक्व कवि ही करते हैं तथा यह रसादि तात्पर्य से युक्त ध्वनि काव्य ही पूर्ण परिपक्व काव्य अथवा
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काव्यपाक की स्थिति है।
निरन्तर अभ्यासी कवियों के वाक्य के पाक का उल्लेख आचार्य विद्याधर ने भी किया है तथा रस के अनुकूल शब्दार्थ निबन्धन का ही पाक से तात्पर्य माना है।
अग्निपुराण में तथा आचार्य भोजराज के 'सरस्वतीकण्ठाभरण' में काव्यपाक को काव्य का गुण माना गया है। काव्य में महती शोभा का आधायक तत्व अग्निपुराण के अनुसार गुण है। शब्द तथा अर्थ दोनों के ही उपकारक उभयगुण के छः भेद स्वीकार किए गए है- प्रसाद, सौभाग्य यथासंख्य, प्रशस्यता, पाक तथा राग । पाक से तात्पर्य किसी वस्तु की उच्च रूप में परिणति से है - इस दृष्टि से काव्य की उच्च परिणति अथवा पूर्ण परिपक्वता की स्थिति काव्यपाक है
भोजराज के 'सरस्वतीकण्ठाभरण' में विवेचित काव्य के 24 गुणों में से सुशब्दता, उक्ति तथा प्रौढ़ को कवि के काव्य की परिपक्वता से सम्बद्ध माना जा सकता है 2 सुबन्त, तिङ्न्त शब्दों की
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यः काव्ये महत छायामनुगृहणात्यसौ गुणः शब्दार्थावुपकुर्वाणो नाम्नोभयगुणः स्मृतः
उच्चैः परिणतिः काऽपि पाक इत्यभिधीयते
अग्निपुराण का काव्यशास्त्रीय भाग (दशम अध्याय)
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2 सुशब्दता (शब्दगुण तथा अर्थगुण)
व्युत्पतिः सुसि या तु प्रोच्यते सा सुशब्दता अदारुणार्थपर्य्यायो दारूणेषु सुशब्दता ।
उक्ति (शब्दगुण तथा अर्थगुण )
विशिष्टा भणिति: या स्यादुक्तिं तां कवयो विदुः । उक्तिर्नाम यदि स्वार्थों भङ्गया भव्योऽभिधीयते । प्रौढि ( शब्दगुण तथा अर्थगुण) उक्तेः प्रौढ परीपाकः प्रोच्यते प्रौढिसंज्ञया विवक्षितार्थनिर्वाहः काव्ये प्रौढिरिति स्मृता ।
सरस्वती कण्ठाभरण (भोजराज) (प्रथम परिच्छेद)