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________________ ८० | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार जायगा । आओ हम फिर से इस वृक्ष पर चढे और द्रह मे कूद पडे । और अबकी बार हम देव होकर निकलेंगे। यह सोचविचार करने का समय नही है, शीघ्रता करो । वानरी इससे सहमत नहीं थी। उसकी धारणा थी कि लोभ मे पडकर हम वर्तमान सुखो से ही कही हाथ न धो बैठे। उसने वानर को वोध देते हुए कहा कि सन्तोष ही मे सार है, प्रियतम ! जो हमे भाग्य ने दिया है, हमे उसी को बहुत मानकर आनन्द के साथ जीवन व्यतीत करना चाहिए । लोलुपता तो समस्त सुखो का सर्वनाश ही कर देगी । तनिक शान्ति से सोचो कि ये सुख ही हमारे लिए कौन-से कम हैं । वानरी के सारे प्रयत्न विफल हो गये। लोभी वानर पर उनका कोई प्रभाव नहीं हुआ। लालसाओ के अधीन होकर वह नर-देह धारी वानर वृक्ष पर चढ गया और द्रह मे कूद पड़ा । पानी से निकलकर उसने अपनी देह की ओर निहारने से पूर्व ही गर्व का अनुभव किया। उसका अनुमान था कि वह अव देव बन गया है और अपनी धारणा की पुष्टि के लिए ज्यो ही अपनी देह की ओर उसने दृष्टि डाली-वह हाहाकार कर उठा । वानरी ने भी देखा तो हठात् ही दुखित हो उठी । यह क्या ? उसका नरदेह तो पुन. वानरदेह मे परिणत हो गया था । इस दारुण दुर्भाग्य के रूप मे वानर को उसके लोभ का दण्ड मिल गया था । तीव्र पछतावे के आवेश मे वह छटपटाने लगा, किन्तु अब हो ही क्या सकता था ! वानरी भी निराश हुई । वानर से अव उसका वियोग निश्चित था-वह उद्विग्न थी कि वानर वेचारे का क्या होगा। वानर वेचारा सोचने लगा
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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