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________________ लोभी वानर की कथा | ७६ और वह सोचने लगी कि अरे । यदि नारी देह नही भी मिली तो मृत्यु ही तो होगी। वियोग के दुःखो मे जीवित रहने की अपेक्षा तो यह मृत्यु ही भली है । और उसने भी तुरन्त हो वृक्ष पर से पानी मे छलाग लगा ली। परिणाम वानरी के साथ भी ऐसा ही हुआ और हे स्वामी । वह वानरी तो अलौकिक सौन्दर्य सम्पन्न नारी हो गयी। अब वह वानर-युग्म नर-नारी के जोड़े में परिवर्तित हो गया। पहले की अपेक्षा अव इनके पास सुखो की अधिक विस्तृत परिधियाँ थी। आनन्द की अनन्तता हो गयी थी उनके लिए। कथा के अग्राश को मन-ही-मन सुनियोजित कर लेने के लिए पद्मश्री एक क्षण के लिए रुकी और आत्म-विश्वास के साथ उसने पुन. कथन आरम्भ किया। हे प्राणेश्वर ! वह नारी रूपधारिणी वानरी तो अपने जीवन के इस नवीन रूप से पूर्णतः सन्तुष्ट थी, किन्तु वानर का महत्वाकाक्षी हृदय इस अवस्था को तुच्छ समझने लगा था । उसे तो और अधिक उन्नत अवस्था की अभिलाषा थी। इन सुखो से असन्तुष्ट वानर दिव्य सुखो की साध रखता था । वह तो नरदेह से भी श्रेष्ठ देव-देह का आकाक्षी था। उसने वानरी से अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए कहा कि प्रियतमा ! हमे निरन्तर आगे से आगे बढता रहना चाहिए। तुम्हारी अल्पबुद्धि इन सुखो को ही सीमा मान बैठी है, किन्तु यह तो सुखो का आरम्भ मात्र है। क्यों न हम इनसे श्रेष्ठ सखोपभोग के लिए प्रयत्न करें। आओ नर-देह त्यागकर हम देव-देह प्राप्त कर लें फिर तो हमारे लिए सब कुछ सुलभ हो
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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