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उपसंहार २१५
पर मै कतिपय महत्वपूर्ण परामर्श देना चाहता हूँ। अनेक जन दीक्षा व्रत लेकर सिंह के समान श्रमण परम्परा को अगीकार करते है, किन्तु तत्पश्चात् शृगालवत् कायरता का परिचय देने लगते हैं । ऐसे श्रमण सयम की वाह्य औपचारिकताओ का ही निर्वाह कर पाते है । इसके विपरीत कुछ लोग ऐसे भी होते है जो शृगाल के समान कायरता दिखाकर, भयभीत होकर जगत का परिहार करके सयम मार्ग पर आरूढ हो जाते है और शेष जीवन मे भी शृगालवत ही वे सयम का निर्वाह करते रहते है। कतिपय जन ऐसे भी होते हैं, जो सयम ग्रहण के समय तो शृगालवत होते हैं, किन्तु तदनन्तर सिह की भांति उसका निर्वाह करते है । और इन सबसे भिन्न ऐसे पराक्रमी महापुरुष भी होते हैं, जो सिंह की भाँति ही पूर्ण उत्साह से साथ साधना-पथ पर चढते हैं और निरन्तर उसी साहस और वीरता के साथ, सिंह के समान ही अग्रसर होते चले जाते है। यह अन्तिम आदर्श ही तुम सबके लिए अनुकरणीय है । तुमको ऐसे ही साधको की भांति साधना के दीप को प्रज्वलित रखना है, उसकी शिखा को निष्कम्प रखना है । यदि ऐसे ही उत्साह और धैर्य के साथ साधनारत रहने मे सफल हो सके, तो तुम्हारे लिए दुर्लभ परमपद भी सुलभ हो जायगा। मेरी कामना है कि दिन-प्रतिदिन तुम अपनी साधना मे प्रगति करते चलो। यह क्रम निर्विघ्न चलता रहे और उत्थान के नवीन आयाम जुडते चले जायँ । . जम्बूकुमार और समस्त सद्य दीक्षित जन श्रद्धेय गुरुवर आर्य सुधर्मा स्वामी के शुभाशीर्वाद से कृतकृत्य हो उठे। आर्यश्री के
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