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________________ १३ : दुस्साहसी बाज की कथा : रूपश्री का प्रयत्न एक-एक कर जम्बूकुमार की छ पत्नियां अपने प्रयत्नो मे पराजित हो गयी थीं और अपनी विचारधारा को त्यागकर कुमार के व्रत का औचित्य स्वीकार कर चुकी थी। किन्तु अब भी रूपश्री और जयश्री के मन मे प्रयत्न कर लेने का उल्लास था । प्रथमत रूपश्री जम्बूकुमार के समक्ष उपस्थित होकर कहने लगी कि स्वामी ! मैं अपने सशक्त तर्क द्वारा आपको अवश्य ही प्रभावित कर लूंगी । अन्यो की भाँति आप मुझे अपने विचारो से नही डिगा पायेंगे । हे कुमार ! आपने विरक्त हो जाने का व्रत तो धारण कर लिया है, किन्तु साधना-मार्ग की कठिनाइयो और जटिलता से आप अपरिचित है। मेरा विचार है कि इसी कारण आपने बड़ी ही सुगमता के साथ यह निश्चय कर लिया है । आपकी इस सृदुल काया उस दुर्गम पथ के योग्य नही है। उस कठिनतर मार्ग पर यात्रा का विचार आपको अब भी त्याग देना चाहिए। सुखो की शीतल वयार मे खिली कली-सा आपका जीवन तपस्याओ की तपती धूप मे झुलस जायगा स्वामी ! साधना का मार्ग आपकी शक्ति के परे है और जो अपने सामर्थ्य से कही ऊँचा लक्ष्य निश्चित कर लेता है-उसका यह दुस्साहस ही उसका सर्वनाश कर देता है। 'आधी छोड जो पूरी को धावे-वह आधी भी खोवे और न पूरी
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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