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________________ प्यासे बन्दर की कथा | १४१ वह सर्वथा असहाय था । खुले मैदान मे वह शिथिल होकर गिर पडा । तीर की तरह तीखी सूर्य की किरणे वरस रही थी। मिट्टी सूख-सूखकर और भी सिकुडने लगी और वानर की सारी त्वचा विदीर्ण हो गई । भयकर यातना भोगते-भोगते वेचारे उस वानर ने प्राण त्याग दिये । अतृप्त प्यास लेकर ही उसे विदा होना पडा । कैसा भीषण दुखान्त था उसके जीवन का~जिसकी कल्पना मात्र से ही सिहरन उत्पन्न हो जाती है । अन्त मे जम्बूकुमार ने कहा कि कनकसेना । मेरा अनुमान है कि इस कथा के माध्यम से जो मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ तुम उसे समझ ही गई होगी। सासारिक सुख इस पक के ही समान तो है । कीचड़ चाटने से वानर को जो राहत मिली वह क्षणिक ही तो थी। उसी प्रकार ये कहे जाने वाले सुख क्षण भर के लिए रचमात्र-सा ही आनन्द का आभास कराते है और उनके पीछे जो विकराल विभीपिका छिपी है उसकी यातना मे मनुष्य आजीवन छटपटाता रहता है। ये अस्थिर विषय शाश्वत दुःखो के जनक बन जाते है। जो इन विषयो से सिक्त हो जाते है, घिर जाते है, इनसे आवेष्ठित हो जाते है उनके जीवन की वही दुर्गति होती है जो पक-लिप्त तृषित वानर की हुई थी। कनकसेना | तुम तो मेरा हित ही चाहती हो ना ! क्या अब मी तुम मेरे विरक्त मन को ऐसे सुखो की ओर उन्मुख होने, उनसे ग्रस्त हो जाने के लिए प्रेरित करने की कामना रखती हो ? गम्भीर, मौन कनकसेना उत्तर मे कुछ न कह सकी । उसकी दृष्टि -
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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