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________________ १४० | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार लगा। उसका सीना धौकनी हो गया था। उसे पानी की सख्त जरूरत थी, और जरूरत थी कि पूरा होना ही नहीं चाहती थी। थककर वह बे-दम हो गया था और चलना-फिरना भी उसके लिए कठिन हो गया था। एक पंड तले छाया में बैठकर वह सुस्ताने लगा। लेकिन प्यास की पीडा ने उसे बैठने नही दिया । वह फिर से पानी की खोज में चल पड़ा । लडखड़ाते हुए वह बहुत दूर निकल गया । झाड़ी-झाडी उमने टटोल डाली पर पानी का कोई पोखर तक दिखायी नही दिया । बहुत भटक चुकने पर उसे एक सूखी तलैया मिल गयी। पानी तो एक बूंद भी नही था किन्तु कीचड़ में कुछ नमी अब भी शेष भी । वह प्यास से दीवाना वानर आतुरता के साथ कीचड को चाटने लगा । और कनकसेना | तुम तो जानती ही हो कि इस प्रकार उस तृपित वानर की प्रचण्ड प्यास बुझ नही सकती थी। बाहर-भीतर के ताप से उसकी सारी देह दहक रही थी। इससे व्यग्र होकर वह वानर बेचारा उस अधसूखे कीचड मे लोटने लगा । उसका मारा शरीर लथ-पथ हो गया और उसे कुछ शीतलता का अनुभव भी हुआ। लेकिन यही क्षणिक शीतलता उसके लिए भयकर अभिशाप सिद्ध हुई। वह वानर पक से लिप्त होकर जब सूखी तलैया से बाहर आया तो कीचड की नमी शीघ्र ही तेज धूप से वाष्प बनने लगी । कीचड सूखने लगा और वह मिट्टी की पर्त सिकुडने लगी। परिणामत मिट्टी मे उलझे उसके शरीर के रोएँ खिचने लगे। असह्य पीडा ते वेचारा वानर तडपने लगा । वडी ही दुर्दशा होने लगी थी उस वानर की ।
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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