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________________ ११४ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार हो, तो रानी की पीठ को देख लीजिए । वहाँ आपको शृंखला के चिह्न मिल जायेगे जो आपकी शका को निर्मूल कर देंगे । अब राजा का अविश्वास आधा रह गया । वह तुरन्त राजसभा से निकल आया । उसने अपने क्रोध को विवेक से संयत किया और अपनी न्यायशीलता को उत्तेजित करने लगा । वह इस आरोप की परीक्षा कर वास्तविकता तक पहुँच जाना चाहता था । कपिला रानी को जब सूचना मिली कि राजा उससे भेंट करने आ रहा है, तो वह राजा के इस असमय आगमन के कारण भावी अमगल की आशका से भयभीत हो गयी । वह अभिनयकुशल तो थी ही । तुरन्त ही उसने स्वयं को सँभाल लिया और अपने मुखमण्डल से भय की सारी रेखाएं समेट कर एक मधुर हास विखरा दिया। मुस्करा कर उसने राजा का स्वागत किया । राजा ने भी अपनी आशका का आभास नही होने दिया । वह रानी के समीप जा बैठा और लुक-छिपकर उसकी पीठ की ओर देखने लगा । रानी ताड गयी और रहस्य की रक्षा के लिए वह नये-नये बहाने के साथ राजा के पास से उठकर जाने का प्रयत्न करने लगी । इससे राजा को अपनी आशका की पुष्टि होने लगी । अब तो एक ही झटके से राजा ने रानी की पीठ को वस्त्रहीन कर दिया। उस की पीठ पर कलंक कथा अकित पाकर राजा प्रचण्ड क्रोध से धधक उठा । अब उस अनाम पत्र की सत्यता सर्वथा सिद्ध हो चुकी थी । न्यायी राजा ने कपिला रानी और महावत दोनो को अपने राज्य से निष्कासित कर दिया । प्रेमोन्माद के कारण कपिला को इसमे
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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