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________________ रानी कपिला की कथा | ११३ रुष्ट हो जाय और उसे अपनी रानी को अपमानित और लाछित करने के अपराध मे प्राणदण्ड ही दे दे। किसी एक बात के कारण दूसरी बात को छोड़ने के लिए उसका मन तत्पर नही हो रहा था। इन दो विपरीत भावो मे उसके मन मे बड़ी देर तक संघर्ष छिडा रहा । अन्तत उसने एक मध्यम मार्ग निकाल लिया जिससे दोनो ही विरोधी बातो का एक साथ निर्वाह सम्भव हो गया। उसने एक विशेष प्रणाली के साथ राजा को इस सारी घटना से अवगत कराने का निश्चय कर लिया। इस समय उसके भाल पर शरद की पिछली रात मे भी पसीने की बूंदें छलछला आयी थी। प्रात काल की सुखद वेला मे राजा जब अपनी राजसभा में बैठा था, एक चर ने आकर बडे आदर के साथ उसे एक पत्र प्रेषित किया। पत्र का प्रारम्भिक वाक्य पढकर ही राजा क्रोधित हो उठा । एक हुकार के साथ यह मन ही मन सोचने लगा कि किसने मेरी प्राण-प्रिया रानी पर कीचड़ उछालने का यह दुस्साहस किया है । तुरन्त उसकी दृष्टि पत्र के अन्त मे पहुँच गयी। किन्तु प्रेषक के नाम-पते का कोई उल्लेख न पाकर वह अपने प्रतिशोध भाव को तुष्ट न कर पाने की विवशता के साथ मन-ही-मन कुढने लगा। उसके दांत भिचे के निचे रह गये । अनाम पत्र पर भी न्यायशील राजा चुप्पी कैसे साध लेता | उसने पत्र को आद्योपान्त पढ लिया जिसमे वह सारा दृश्य अंकित था, जो का प्रहरी ने गत रानि मे महावत के घर देखा । अन्त मे लिखा गया था कि यदि आपको इस पत्र के मिथ्या होने की आशंका
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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