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परवर्ती नवाब
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राव शिवसिंहजीने नबाब कामयाबखांको जब गद्दी दिलवाई थी, तब अपने श्वसुर भावसिहजी बीदावतको उन्होंने नवाचका कामदार नियत किया था । नवाब कामयाबखांने गही पानेमें कामयाब हो कर भावसिंहजी और चूड़ी, वेसवाके कायमखानियोंको थोड़े दिनों बाद ही अपने राज्य फतहपुरसे निकाल बाहर किया । राव शिवसिंहजीने यह बात सुनी। उन्होंने इसे एक श्रच्छा मौका समझा । तुरन्त शार्दूलसिंहजीको बुलवाया और उनसे सलाह करके चैत्र-कृष्ण १३ संवत् १७८७को फतहपुर पर दो हजार घुड़सवारोंकी सेना ले कर चढ़ श्राये ।
समस्त कायमखानी, कुंकुंणूकी तरह फतहपुरको अपने हाथसे जाता देख कर एकत्रित हो नवाबके पक्ष में श्रा डटे । केवल वेसवाके कायमखानी नहीं थाये ।
शेखावतों और कायमखानियोंमें प्रबल युद्ध हुआ । दोनों तरफके योद्धा प्रवल विक्रमसे लड़े, जिनमें कई घायल हुए और कई मारे गये । चारों तरफ रुधिरसे लथ-पथ रुण्ड और मुण्ड ही नजर आते थे ।
निदान नवाब सरदारखां घायल हो गया' और नवाब कामयाबखां मैदान छोड़ कर भाग गया। जिसके फलस्वरूप कायमखानियोंकी पराजय हुई। उनसे राज्य छीन कर शेखावतोंने उस पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया । संवत् १७८७की समाप्तिके रोजसे राव शिवसिंहजी फतहपुर के शासक पद पर आरूढ हुए ।
उपसंहार
फतहपुर राज्यके हाथसे चले जानेके बाद कायमखानी हार मान कर चुप न बैठ सके । वे राज्यको फिर हस्तगत करनेके लिए कोशिशें कर रहे थे । उन्होंने दिल्ली जा कर तत्सामयिक मुग़ल बादशाह मुहम्मदशाहके दरबार में शेखावत के विरुद्ध दावा पेश किया, लेकिन शेखावतों ने पहलेसे ही सवाई जयसिंहजी ( द्वितीयको ) जो कि दरबारके मान्य व्यक्ति थे फतहपुर पर अधिकार - स्थापनकी कथा कह सुनाई थी । जिससे उनकी इच्छित बात हो शाही रजिस्टरोंमें दर्ज हो गयी थी, इससे कायमखानियोंके दावे पर ध्यान न दिया गया। फतहपुर पर राव शिवसिंहजीका ही अधिकार रहा । संवत् १८०८में कायमखानियोंने समर्थसिंहजी और चांदसिंहजीकी अनुपस्थितिमें* सिन्धी
१ नवाब सरदारखां, श्रहत दशामें ही हिसार ले जाया गया, जहां पर उसका प्राणान्त हो गया । २ नवाब कामयाबखां, भाग कर कुचामण ( मारवाडमें ) चला गया । वहीं अपनी जिन्दगीके दिन पूर्ण होने पर मृत्युको प्राप्त हुआ । उसकी सम्तान श्राज तक कुचामणमें विद्यमान है । * समर्थसिंहजी और चांदसिंहजी, जोधपुरके महाराजा अभयसिंहजीके पुत्र रामसिंहको सहायतार्थं गये हुए जयपुरके महाराजा ईश्वरीसिंहजीके साथ जानेके कारण अनुपस्थित थे ।