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________________ उन्होंने समाज, धर्म और राष्ट्रके लिये समय समय पर जो निवन्ध लिखे हैं वे साहित्यकी स्थायी निधि हैं; वे स्वाध्याय और मननकी बहुमूल्य सामग्री हैं ।. __ संयोगकी वात है कि मुझे अपने जीवनको वनाने और थोड़ी बहुत विद्यानिष्ठा और दृष्टि प्राप्त करनेमें जिनका सहारा मिला उनमें दो प्रज्ञाचक्षु ही मुख्य हैं । जब मैं सन् १९२९ में नया नया न्यायतीर्थशास्त्री वनकर अपने जन्मस्थान खुरईकी पाठशालामें अध्यापक नियुक्त हुआ तो वहींके सेठ दीपचन्द्रजीने ढेरकी ढेर चुनी हुई पुस्तकें मेरे अध्ययनके लिये सामने रख दी और कहा-'बेटा, अब तुम इनके पढ़नेके लायक हो गये हो। दूसरे ऋषियोंने भी अपनी जीवनसाधनासे जो तत्त्वज्ञान दिया है वह भी कम महत्त्वका नहीं है।' ये अब स्वर्गवासी हो गये हैं, पर जबतक जीवित रहे तवतक वैद्यक, ज्योतिष, कुरान, वाईवल, योगवासिष्ठ, रामायण, महाभारत, दर्शनके विविध मूल ग्रन्थ आदिका वाचन सतत उस छोटीसी नगरीमें करते रहे और रातके दो-दो बजे तक यह साधक ज्ञानकी उपासनामें लीन रहता था । सन् १९३० में मैं स्याद्वाद विद्यालय, वनारसमें अध्यापक हुआ और सन् १९३३ में श्रद्धेय पं० सुखलालजी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयमें जैनदर्शनके प्राध्यापक होकर आये । पहली ही भेटमें इन्होंने अपने ज्ञानकोशकी कुंजी मुझे सौंपते हुए कहा-'पंडितजी, अभी उम्र है, साधन है, यह क्षेत्र है, जो चाहो कर सकते हो।' उन्हींके सन्मतितर्कको आदर्श मानकर न्यायकुमुदचन्द्रका संपादन प्रारम्भ किया और आठ वर्ष तक जिस ग्रन्थराशिका अवगाहन किया, सचमुच उसने और पंडितजीसे प्राप्त विचारसामग्रीने मेरी आँखे ही खोल दीं । मैं इस ‘पश्यत्यचक्षुः 'के जीवन्त निदर्शन, अनयन नेता और दृष्टिदाताको श्रद्धाञ्जलि अर्पित करके धन्य हो रहा हूँ। उन जैसा स्वतन्त्र विचारक, सूक्ष्म चिन्तक, गभीर जीवनशोधक और अतुल मानवतोपासक युगों युगोंमें विरल होते हैं । आत्मशक्तिको वाह्योन्मुख करनेवाले ये चर्मचक्षु जैसे ही मूंदे कि उन्हें अन्तःकी सहजनिधि मिल गई। प्राचीन शास्त्रोंके अगाध पांडित्यके साथ साथ दम्भ और अहंकारके नागपाशोंसे मुक्त हो उनने मानवतास्पर्शी विचारोंका जो आकलन किया है वह उन जैसे विद्यात्माका ही विशिष्ट कार्य है । वे हमारे बीच कमसे कम 'जीवेम शरदः शतं' यानी शतक तो अवश्य पूरा करें । उनके आसपास कलि सचमुच नहीं फटकता; ज्ञानकी सुरभि ही सुरमि चारों ओर फैलती है । वे चिरकाल तक इस सुवासको वखेरते रहें । २१-१-५७, हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस
SR No.010642
Book TitlePandit Sukhlalji Parichay tatha Anjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandit Sukhlalji Sanman Samiti
PublisherPandit Sukhlalji Sanman Samiti
Publication Year1957
Total Pages73
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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