SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आध्यात्मिक पत्र ३७ इस अनुभवमे परिणाम मात्र गौण है, चाहे बुद्धिपूर्वक हो या अबुद्धिपूर्वक । ऐसे धर्मीको कभी परिणामकी मुख्यता नही होती । अतः उसे अन्य धर्मी जीवमें भी परिणामकी मुख्यता नही दिखाई देती; जैसे कि मात्र परिणाम देखनेवालेको प्रवृत्तिकी मुख्यता दिखती है । ५. धर्मी, अधर्मीके भी त्रिकाली व वर्तमान दोनोंको एक साथ देखता है । त्रिकालीका अभान होनेसे अधर्मीको परिणाम मात्रमे एकत्व होता है, इसका धर्मीको ज्ञान रहता है । ६ वृत्ति अपेक्षा त्रिकालीकी मुख्यतावाले धर्मीको सहज ही इस मुख्य आश्रित वृत्तिकी ही मुख्यता रहती है, वर्तती है; चाहे बाह्यांशमें बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति हो । ७. त्रिकाली तो प्रवृत्ति - निवृत्तिरूप परिणामका ही कर्ता नहीं है । परिणामका कर्ता परिणाम ही है, यह अपेक्षा भी अपनी चर्चा में आई ही थी ।... धर्म [३४] ॐ श्री सद्गुरुदेवाय नमः शुद्धात्म सत्कार । आपका ता. २४-१२ का पत्र मिला । धर्मस्नेही सोगानी कलकता ३०-१२-१९६२ आपने वाचन-विचारणा वास्ते लिखा सो त्रिकाली अखण्ड ज्ञानानन्द स्वभावमें अस्तित्वरूपी श्रद्धाकी यथार्थ व्यापकता निरन्तर कायम रहे, जहाँके अनुभवमे परिणाम मात्रके अकर्तापनेका सहज अनुभव होता रहे । परिणामका कर्ता परिणाम अंश है, 'मैं' त्रिकाली अंश नही ।
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy