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प्रकाशकीय
प्रस्तुत “द्रव्यदृष्टि-प्रकाश” ग्रन्थ स्वानुभूति विभूषित पुरुषार्थमूर्ति पूज्य श्री निहालचन्द्रजी सोगानी द्वारा लिखे पत्रो व तात्त्विकचर्चाओमे निरूपित अध्यात्मके मूल/सूक्ष्म सिद्धान्तोका अनुपम संकलन है । यह ग्रन्थ जैनवाङ्गमयके आध्यात्मिक विभागकी एक अनूठी थाती है ।
अनादिकालसे अज्ञानी जीवने अपने पारमार्थिक मूल स्वरूप, जो शाश्वत, काल एकरूप, निष्कम्प व ध्रुवधाम है, को दृष्टिमे न लेकर, उसने प्रतिसमय उत्पाद - व्ययस्वरूप, नश्वर, कम्पित, क्षणिक वर्तमान पर्यायक्त् ही अपना स्वरूप जान-मानकर, उसीकी दृष्टि कर रखी है । और ऐसी विपरीत दृष्टिमे वह अपन अस्तित्व क्षणिकवत् श्रद्धने रूप भावमे स्वयंके मूल स्वरूपका निरन्तर घात करता रहा है और वैसे भावके फलस्वरूप वह अनादिसे द्रव्य और भावमरणको संप्राप्त होता आया है । और वस्तुस्थिति भी यही है कि जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि होती है। असलमे जीवके पंचपरावर्तनरूप संसारकी अनन्त क्लेश संततिका एकमात्र मूल कारण उक्त विपरीत दृष्टि ही है, जो अनादिसे मिथ्यात्वभाव रूपमे निरन्तर वर्त रही है । ऐसे भावको आगममे पर्यायबुद्धि, पर्यायमूढता, पर्यायका कर्तृत्व, पर्यायमे एकत्व, पर्यायमे अस्तित्व आदि अनेक सज्ञाओसे दर्शाया है । वास्तविकता तो यह है कि विपरीत श्रद्धा / दृष्टिके गर्भमे अनन्त दोषो व दुःखोकी सर्जन क्षमता सदा विद्यमान रहती है और उससे प्रतिपल दोष व दुःख अंकुरित होते ही रहते है । अतएव मुमुक्षुका सर्व प्रथम कर्तव्य यही है कि वह, दृष्टि विपर्यास जैसे सर्व क्लेशोके जनककी भयंकरताका मूल्यांकन जैसा कि ज्ञानी धर्मात्माओने निर्दिष्ट किया है तदनुरूप भलीभाँति निश्चय करे और फिर अपनी सर्व शक्ति उक्त विपर्यासके मूलको निरस्त करनेमे लगावे; तभी उसका आत्मश्रेय सम्भव है ।
उक्त महत्त्व हेतुसे पू. श्री सोगानीजीने कथित 'महाविपर्यास' के विरुद्ध, परम परमार्थरूप निज मूल तत्त्वकी सर्वोत्कृष्ट उपादेयता दशति हुए अपनी अनूठी द्रव्यदृष्टिप्रधान शैलीमे जितने प्रचण्ड प्रहार किये है, वे जीवको अनादिरूढ पर्यायदृष्टिके चंगुल से छुड़वाने और सर्व श्रेयकी मूल द्रव्यदृष्टि कराने हेतु सचोट, सबल और सार्थक व उपकारभूत निमित्त होनेसे, उन्हें ग्रन्थारूढ किया गया है । श्री सोगानीजीकी कथनपद्धति ऐसी मौलिकता, सहजता, प्रखरता और स्पंदनयुक्तता सन्निहित है, जिसके सम्यक् स्पर्शसे पात्र जीवका पड़ा हुआ आत्मा अपने श्रेयार्थ संवेगसे