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________________ २४ द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - १) ही घरसे बाहर इस एक्सीडेन्टके बाद पहले-पहले निकल रहा हूँ। ___ "किस प्रकार आत्मा अपनी ओर पुरुषार्थकी वृद्धि करनेका प्रयोग करता है ?" आपके इस प्रश्न पर मेरा तो इतना ही लिखना है कि प्रथमकी यथार्थ श्रद्धा समय, श्रद्धाकी पर्यायका अखण्डकी ओर जो झुकाव अथवा लीनताका पुरुषार्थ होता है उसमे कालभेद नही है व यथार्थ श्रद्धामे जो पुरुषार्थका प्रयोग है, बारम्बार उस ही प्रयोगकी वृद्धि होती रहती है, उसे वृद्धिका पुरुषार्थ कहते हैं। पहलेके व बादके पुरुषार्थके प्रकारमें कोई प्रकारका फ़र्क नही है। इस ही लिये गुरुदेवश्रीका यथार्थ समझणपर बारम्बार ज़ोर रहता है, कारण इस प्रथम समझणमे ही भविष्यका सम्यकू पुरुषार्थ गर्भित है। अखण्ड ज्ञानघन पुरुषाकार (देहाकार) शरीर, कर्म, भावकर्म व शुद्धपर्यायसे भी ऊँडा चैतन्य तत्त्व 'मैं' हूँ, यह ही मेरा अस्तित्व है, शुद्धपर्यायका अस्तित्व भी इसमे गौण है; ऐसी प्रथम यथार्थ श्रद्धा जब ही कही जाती है कि ऐसी श्रद्धाके प्रसारके साथ ही लीनताका प्रथम आत्मानुभव होता है। लीनताका पुरुषार्थ अथवा इसमे वृद्धि यह सब पर्यायके कार्य हैं। मेरापना, मेरा अस्तित्वपना अथवा व्यापकपना तो केवल त्रिकाली ज्ञानघन अखण्ड चैतन्यमें है - इस दृष्टिमें पर्यायका पुरुषार्थ सहज स्वभाव है। पर्यायअपेक्षा पुरुषार्थ हुआ, वृद्धि हुई, उसे पुरुषार्थ किया अथवा वृद्धि करी, ऐसा कहते हैं। यथार्थमें तो उक्त अस्तित्वपनेकी अखण्ड दृष्टिके बलपर पर्यायोका क्रम सहज ही अखण्डकी ओर बढ़ता रहता है । पुरुषार्थ आदिकी इन पर्यायोमे कोई उलटफेर (अधिक व कम पुरुषार्थ आदिका) करना नही पड़ता; कारण कि पर्यायमें तो मेरा - दृष्टिके विषयका -अस्तित्व ही नही है कि 'मैं' उसमें कुछ कर सकूँ ! मेरा अस्तित्व तो त्रिकालीपनमें है। आशा है मेरा दृष्टिकोण मैं व्यक्त कर सका हूँ।... धर्मस्नेही निहालचन्द्र सोगानी
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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