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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - १) कर सकेगे।
श्री गुरुदेवका प्रसाद दैनिक यहाँ आता है । उनका शारीरिक स्वास्थ्य ठीक होगा ।...
धर्मस्नेही निहालचन्द्र
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कलकत्ता २३-३-१९५६
श्री सद्गुरुदेवाय नमः आत्मार्थी निहालचन्द्रका धर्मस्नेह ।
कलकत्तेसे एक भाई वहाँ गये थे, उन्होने आपके समाचार कहे थे। विद्वत्परिषद पर वहाँ पहुँचनेका निश्चय किया था, वह भी कुछ ही समय अर्थात् एक हफ्ते तक वहाँ ठहरनेका, सो प्रोग्राम बदलनेसे फिर रुकना हो गया। कुछ योग ही ऐसा है, पूर्व कर्म भी ऐसे है कि उत्कृष्ट संयोगसे वंचित रहना पड़ रहा है। सर्वप्रथम सोनगढ़ गया था तब ही तीव्र भावना थी कि वहाँ कोई मकानका प्रबन्ध कर निरन्तर गुरुदेवके चरणोमे लाभ उठाऊँ; परन्तु योग ऐसा है कि अबके तो बरसोसे भी दर्शन नही हो सके । इस माहमे तो वहाँ की बारम्बार स्मृतियाँ प्रबलतर होती जा रही है व परिषद पर पहुंचनेका योग भी नही बना, गोया मुझे परिषदसे अधिक प्रेम नही था फिर भी सुयोग समझकर समय चुना था। ऐसी हालतमे पत्र लिखनेका विचार हुआ सो लिखा जा रहा है।
जिस आत्मद्रव्यमे परिणाम मात्रका अभाव है उसमे जम गया हूँ। परिणमन सहज, जैसा होता है, होने दो; हे गुरुदेव ! आपके इन वचनोने अपूर्व निश्चलता पैदा कर दी है । चञ्चलता व निश्चलता तो परिणाममे है, मै नित्य हूँ, मेरेमे नही, यह अनुभव अपूर्व है । परिणाम क्षण-क्षण निराकुलताकी वृद्धि पामते है । "तो पण निश्चय राजचन्द्र मनने रह्यो, गुरु