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[१९] तो वे सड़कके किनारे खड़े-खड़े ही काफी देर तक धर्म-चर्चा करते रहते थे।
उनका एक मुमुक्षुसे व्यावसायिक सम्बन्ध भी था, उससे व्यापारिक कार्य यथाशीघ्र निपटा कर वे धर्म-चर्चामे लग जाते थे।
वे आख़िरके वर्षामे धार्मिक प्रसंगोके अवसर पर मुमुक्षुओ द्वारा घिरे रहने लगे, परन्तु समय मिलते ही अकुलाए बिना उनके प्रश्नोंके उत्तर दिया करते थे।
रुचिवन्त अन्तरंग परिचयवाले साधर्मियोंके साथ तो उन्हें देर रात गये तक धर्म-चर्चामे व्यस्त देखा जाता था ।
व्यवसायिक कामसे थक कर लौटने पर भी यदि कोई मुमुक्षु तत्त्व-जिज्ञासा लिए घर पहुंच जाता तो वे तत्काल उसकी उलझन दूर कर देते थे। * निश्चय-व्यवहारसंधि युक्त जीवन :
सर्व ज्ञानीधर्मात्माओकी साधक परिणतिमे निश्चय-व्यवहारका अद्भूत सामंजस्य वर्तता है । तत्त्वतः साधकदशाका ऐसा ही यथार्थ स्वरूप होता है । निश्चय-व्यवहाररूप प्रवर्तती धर्मदशाके संतुलन व सुसंगत संधिके आधारसे ही धर्मात्माकी दशाका प्रमाणीकरण होता है। श्री सोगानीजीकी इन दोनो दशाओंके बीच वर्तते सम्यक संतुलनके प्रमाण उनके पत्र है। यथा :
"सत्गुरु द्वारा प्राप्त अनुभव ऐसे कालमे विषमता आदिको समतापने वेदे व अप्रतिबद्ध स्वभावसन्मुख तीव्र वेग करे, यह ही सबसे श्रेष्ठ है द शीघ्र मनोरथ पूर्ण होनेका यह ही शुभ लक्षण है।"
-(पत्रांक : ७; कलकत्ता | १८-५-५३) 0"अहो गुरुदेव ! आपने तो इन दोनोंसे (- पुण्य-पापसे) ही निराली वृत्ति दिखा दी है, जो कि इनके होते हुए भी विचलित नही होती, खूटेके (- ध्रुवके ) सहारेसे डिगती नहीं है, उसे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावका