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तत्त्वचर्चा
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'मै वर्तमानमें परिपूर्ण हूँ, अभेद हूँ' – ऐसे ध्रुवद्रव्य और ध्रुवपर्यायको [ - जिसको कि, “नियमसार " मे कारणशुद्धपर्याय कहा है, उसको ] लक्ष्यगत् करने पर सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है ।
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द्रव्य पलटता नही है, पर्याय पलटती रहती है । यदि द्रव्य परिणमनको प्राप्त हो जाए तो पलटते हुए द्रव्यके आश्रयसे स्थिरता हो नही सकती; और स्थिरता बिना सम्यग्दर्शन नही हो सकता । इसलिए जो पलटती ही रहती है उसका लक्ष्य छोड़; और ध्रुव - अपरिणामी चैतन्यतत्त्व जो एक ही सारभूत है, उसका लक्ष्य कर !
पर्याय परिणमती है, उसका परिणमन होने दे ! उसके सन्मुख मत देख ! मगर उसी समय 'तु' परिपूर्ण - अपरिणामी - ध्रुवतत्त्व है, उसको देख !
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यह
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अहो ! 'मै' वर्तमानमे ही परिपूर्ण-ध्रुव - अपरिणामी तत्त्व हूँ ! बात जगत्के जीवोको नही जँचती है । और प्रमाणके लोभमे - आत्माको यदि अपरिणामी मानेगे तो प्रमाणज्ञान नही होगा और एकान्त हो जाएगा, ऐसी आड़ लगाकर पर्यायका लक्ष्य नही छोड़ना चाहते है । इस ही कारणसे वे अपरिणामी चैतन्यतत्त्वको प्राप्त नही होते है । ५८०.
प्रश्न :
शास्त्रमे आत्माको भेदाभेद स्वरूप कहा है; और आप तो आत्माको अभेद कहते हो; इसमे आपका क्या प्रयोजन है ?
उत्तर :- प्रमाणज्ञानकी अपेक्षासे आत्माको भेदाभेदस्वरूप कहनेमें आता है । लेकिन वास्तवमे सम्यग्दर्शनका विषयभूत आत्मा तो अभेद ही है, क्योकि सम्यग्दर्शनका विषय भेद नही है । इसलिए भेदाभेदके लक्ष्यसे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नही होती, मात्र अभेदके लक्ष्यसे ही सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है, यही आशय है । ५८१.
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पुरुषार्थकी व्याख्या : सहज उद्यम ।
'मै' तो अनादि - अनन्त अपने स्वरूपमे स्थित हूँ, निर्विकल्प हॅू