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________________ तत्त्वचर्चा देखे तो ( अनंत ) शक्तियाँ दिखेगी; और बहिर्मुख होगा तो संसार दिखेगा । वस ! अंशसे बाहर तो है; इतनी ही मर्यादामे रमत है । १७९ [ कोई जीव ] जाता ही नही ५४७. देव-शास्त्र-गुरु प्रति जो मचक [ शुभभाव है ] वह भी नुकसान ही है; ( किन्तु ) इसमे जीव लाभ मान बैठता है ; [ ऊपरसे ] कहता तो है कि निमित्तसे लाभ नही होता, लेकिन अभिप्राय तो लाभका ही वना रखा है; ( तभी ) तो हाँसे अपनी ओर आता नही । ५४८. .. ܀ अज्ञानमे जीव, वांचन - श्रवण-मनन आदिका जो पुरुषार्थ करता है उसमे तो थाक ( बोझा ) लगता है; लेकिन जिसमे थकान आवे वह पुरुषार्थ ही कहाँ ? सहज पुरुषार्थमे तो वोझा लगता ही नही । [ यहाँ पुरुषार्थका स्वरूप दर्शाया है जी सहज पुरुषार्थ हो तो उसमे कभी थकान नही आती है बल्कि विकल्पकी थकान अवश्य मिट जाती | जैसे जीवीको श्वासोच्छ्वासमै कभी थकान नही लगती क्योकि वह उनका व्यवहारजीवन ( प्राण ) है, वैसे ही सहज पुरुषार्थ आत्माका जीवन है अतएव उसमे थकान कैसी ? ] ५४९. जैसे कोई वीररसका, कोई रौद्ररसका, कोई कामरसका निमित्त है, वैसे यह देव-शास्त्र-गुरु शांतरसके निमित्त है; लेकिन अपनेमे शांतरस जगाये नही तो उन पर उपचार भी जाता नही । ५५०. सुननेमे भी एकान्त उल्लास नही होना चाहिए, दीनता लगनी चाहिए, खेद होना चाहिए । [ मुमुक्षुकी भूमिकामे जिसको स्वरूपप्राप्तिकी तीव्र लगन है उसे स्वरूपकी अप्राप्तिमे, सुनने आदिके भाव असतोष / खेद वर्तता है । ] ५५१.
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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