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________________ द्रव्यदृष्टि - प्रकाश ( भाग - ३) है, तथापि उपदेशात्मक वचनमे 'वह कर्तव्य है,' ऐसा भी वचनव्यवहार होता है, तो भी ऐसे जाननेके विषयको जाननेके अभिप्रायकी मर्यादामे नही रख करके यदि उसे आदरनेका अभिप्राय हो जाए तो आस्रवकी भावना हो जाती है अर्थात् आस्रवभाव आदरने योग्य है, ऐसा अभिप्राय हो जानेसे सवरका मार्ग वन्द हो जाता है । ] ४०८. १५४ ܀ अलग-अलग कालमे क्षणिक शुभविकल्प जो योग्यतानुसार होनेवाले है सो हो जाते है । प्रश्न :- भूमिकानुसार ऐसे विकल्प होते है होनेवाले होते है; ऐसा क्यो लेते है ? 1 ऐसा न लेकर, उत्तर :- भुमिकानुसार ऐसे विकल्प होते है - ऐसे लेनेमे, उसकी दृष्टि वैसे परिणाम करनेमे चोट जाती है । और, होनेवाले योग्यतानुसार होते है इस [ अभिप्रायमे ] दृष्टि परिणाम करनेपर नही रहती बल्कि अपरिणामीपर दृष्टिका ज़ोर रहता है । ४०९. * असलमे तीव्र रुचि हो तो त्रिकालीदलमे ही जम जाये; इधर-उधरकी जॅचे ही नही, [ व्यवहारके विकल्पमे रुके ही नही, ] योग्यतापर छोड़ देवे, वहॉ ज़ोर [ पुरुषार्थ ] रहे ही नही; दृष्टिके विषयमे ही ज़ोर रहे। [ इधर-उधरका विकल्प रहा करता है, वह स्वरूपकी अरुचिके परिणामका द्योतक है । स्वरूपकी तीव्र रुचिमे अन्य विकल्प नही रुचते । ] ४१०. सुनने - करने आदिके भावमे जो पुण्य होता है, वह तो मध्यम प्रकारका पुण्य है; और इधर स्वसन्मुखताका प्रयास चलता हो तो उसमे उत्कृष्ट पुण्य होता है । ४११. * [ रागादिकके ] वेदनमे दुःख लगे, सह न सके, तो अवेदक स्वभावको पकड़े बिना न रहे । ४१२.
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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