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तत्त्वचर्चा
१५१ ऐसी बात ही नही है । 'वह तो मै त्रिकाली ही हूँ' - ऐसे वर्तमानमे ही उसमें थेभ जावो । [ विकल्पातीत स्वभावके विकल्पसे कभी अनुभव नही होता है, परन्तु निर्विकल्पस्वभावकी प्रत्यक्षताको प्रत्यक्षतौरसे आविर्भूत करनेसे, परोक्षता विलीन होकर अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष अनुभव होता है । ] ३९४.
परम शुद्ध निश्चयनयसे आत्मा बन्धनका और मुक्तिका कर्ता ही नही है तो विकल्पका और मोक्षके कर्तृत्वका ज़ोर ख़त्म हो जाता है। त्रिकालीमे जमे रहे तो पर्याय भी इधर [ त्रिकाली ] मे सहज ही आएगी। ३९५.
त्रिकाली शक्तिमे अपनापन होते ही [अन्य ] सभी आलम्बन उखड़ जाते है । ३९६.
चर्चा-वार्ता होती है तो स्पष्टता होती है। प्रश्न :- फिर भी आप चर्चा आदिका निषेध क्यो करते है ?
उत्तर :- निषेध तो हर क्षण पग-पग पर करना ही चाहिए । इधर [ स्वरूपमे ] ढलता जाता है तो निषेध होता जाता है । ३९७.
प्रश्न :- आपकी बातमे क्रम आता ही नही, आप तो एकदम अक्रमकी बात करते है।
उत्तर :- क्रम-फ्रम क्या ? अक्रमको [ स्वभावको ] पकड़े तो क्रम [ शुद्धता आदि ] स्वयं होता है। [परिणामके क्रमका विषय मात्र जाननेका विषय है, अवलम्बन लेनेका नही । ] ३९८.
प्रश्न :- यह सब ख़यालमे होते हुए भी अन्दर क्यो नही जम पाते ?
उत्तर :- वांचन-विचार आदि [ सभी विकल्पो ] मे अन्दरसे ही खरेखर दुःख ही दुःख लगना चाहिए, [ सतुष्टपना नही होना चाहिए, ]