________________
तत्त्वचर्चा
१४९
निवृत्त स्वरूपकी ओर जाना है तो बाहरमे भी निवृत्तिका ही लक्ष्य जाता है । ३८२.
निवृत्ति लेकर एकान्तमे आचार्योके शास्त्र पढ़े तो उनमेसे बहुत [ ॐड़ी ] बाते निकलती है; उनमे [ शास्त्रमे ] तो बहुत भरा है !! आचार्योके जो शब्द हैं न...वे आनन्दकी बूंद... बूंद है; एक-एक शब्दमे आनन्दकी बूंद...बूंद भरी है; आनन्दकी बूंद...बूंद...टपकती है तो हमे रस आता है। ३८३.
मेरी तो ऐसी आदत पड़ गयी है कि बाहरमे चाहे-जैसी खड़खड़ाहट हो परन्तु मेरे तो इधर [ अतर-परिणमन ] चलता है न...! तो उधरका लक्ष्य ही नही रहता । खड़खड़ाहट तो पसंद ही नही है । ३८४. [ अगत ]
मुझे तो एकान्तके लिए समय नहीं मिले तो चैन ही नही पड़ता । ३८५. [ अगत ]
प्रश्न :- घरवालोकी हरएक प्रकारकी प्रतिकूलता होनेसे अपना कार्य कैसे करूँ ?
उत्तर :- अपने अंदरमे बैठकर अपना काम करो ! अपना यह कार्य अंदरमे बैठकर करनेमे न घरवाले जानेगे और न बाहरवाले जानेगे । अपन क्या करते है और कहाँ है, यह भी कोई नही जानेगा । - ऐसे अंदरमे अपना काम हो सकता है । ३८६.
प्रश्न :- समझ न होवे तो?
उत्तर :- अरे ! तीव्र धगश होगी तो समझ भी आ जाएगी। [ सत्यकी तीव्र झखनासे ज्ञान सहज ही खुल जाता है । ] ३८७.