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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) निर्विकल्प सुख सहज वर्तता है, जबकि स्वरूपके - विश्रामधामके - अवलम्बनको छोडकर शरीराश्रित विश्रामके विकल्पमे सुख कैसा ? वह विकल्प तो स्वय ही दुखरूप है । ] ३६२.
'त्रिकालस्वभाव' और 'परिणामस्वभाव' यह दोनो सर्वथा जुदा ही है, लेकिन समूचे [प्रमाणके ] द्रव्यकी अपेक्षासे उनको एक कहनेमे आता है। ३६३.
पर्याय-अपेक्षासे 'मैं' शुद्धभावका कर्ता हूँ, लेकिन अशुद्धभावका 'मैं' कर्ता नही हूँ। [-ऐसा कर्तागुणका स्वभाव है । ] ३६४.
एक समयके परिणाम - बन्ध-मुक्त - से वस्तु शून्य (रहित) है, ऐसा ‘परमात्मप्रकाश मे कहा है । ३६५.
सुनने-करनेमे [ शुभभावमे ] थकान आनी चाहिए। प्रश्न :- वह तो औषधि है, अमृत थोड़े-ही है ?
उत्तर :- औषधि कहनेमे भी ढीलापन हो जाता है, ज़हर ही है। श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्यने तो कहा ही है न कि 'विषकुंभ है ।' एक दफा तो जड़मूलमे कुल्हाड़ा मार दो ! ३६६.
प्रश्न :- एक समयके आनन्दका अनुभव तो पकड़नेमे आता नही तो कैसे खबर पड़े ?
उत्तर :- अरे भाई ! अनुभव खुदके ख़यालमे नही आवे, ऐसा होता ही नही। [क्योकि आनन्दके अनुभवकालमे निर्विकल्प उपयोग असख्य समयका होता है । ] परन्तु वह परिणाम हुआ कि नही ? -ऐसे विचार कर-करके क्या उसमे सन्तोष करना है ? अरे ! सदा ही निर्विकल्प रहे तो भी [त्रिकाली स्वभावके आगे ] उसकी मुख्यता नही करनी है । ३६७.