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________________ तत्त्वचर्चा ११९ 'आत्मधर्म' जब मिला उसमे "एक ही आवश्यक है" - ऐसा पढ़ते ही चोट लगी। - अरे ! यह आठ द्रव्योसे पूजा करना, छः आवश्यक... इन सबमे तो बोझा लगता है; और इस एक ( निश्चय ) आवश्यकमे तो बोझा घट जाता है। २१४. [ सोनगढ़से दो मील दूर ‘एकलिया डैम'के एकान्त स्थलके शान्त वातावरणको देख कर कहा ] यह स्थान यह बतला रहा है कि यदि तुमे सुख चाहिए तो तुम अपने साथियोसे भी दूर हो जाओ । २१५. * 'मै निरावलम्बी पदार्थ हूँ' - ऐसा निर्णय आए बिना, अभिप्रायमे (परका) आलम्बन नही छूटता । २१६. प्रश्न :- श्रद्धाका कार्य श्रद्धा पर ही छोड़ देना ? उत्तर :- यथार्थ श्रद्धा तो हुई नही, और श्रद्धा अन्यत्र (पर पदार्थोमें) भटकती हुई अपनापन (अहम्पना) करती रहे, और फिर भी कहे कि श्रद्धाका कार्य श्रद्धा पर छोड़ता हूँ - [ असलमे ] ऐसा तो हो नही सकता । पहले श्रद्धा अपने त्रिकाली अस्तित्वमे अभेद हो जाए, उसके बाद तो श्रद्धाका कार्य श्रद्धा पर ही है। २१७. झटपट मुक्ति चाहिए !...तो बस, यहाँ [त्रिकालीमे] ही बिराजमान हो जाओ । २१८. [कर्ताबुद्धिके निषेधकी अपेक्षासे कहा ] ज्ञान करनेकी ज़रूरत नही; मन्द कषाय करनेकी ज़रूरत नही; निर्विकल्पता करनेकी ज़रूरत नही; केवलज्ञान करनेकी ज़रूरत नहीं; - सभी सहज होते है, करनेका बोझा ही नही रखना है। अपरिणामी पर आए तो सब सहज ही होता है। 'ज्ञाता-दृष्टा रहूँ'- यह भी नही; इधर (आत्मामें) आया तो ज्ञाता-दृष्टापना
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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