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तत्त्वपर्चा
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होनेपर दृष्टि जम जायेगी। [विकल्पात्मक निर्णय सही होते हुए भी निर्णयरूप परिणामकी मुख्यता नही होनी चाहिए, परन्तु अपरिणामी निजस्वरूपके प्रति पुरुषार्थ तीव्र होना चाहिए । निर्णय या समझ यथार्थ होनेसे ऐसे यथार्थ परिणाम पर वजन रह जाता है तो वह भी ध्रुवस्वभावके अवलम्वन लेने हेतु प्रतिकूल है।] १६०.
इधर [ स्वद्रव्यमे ] दृष्टि जम गयी... बस, वही मुक्ति है; मुक्ति करनी नही है । १६१.
दूसरी सब जगहोसे छूटा; परन्तु इधर आया तो देव-गुरुको चौटा... यहाँसे ज़रूर होगा। - वह तो वैसा का वैसा ही हुआ, सिर्फ नई दुकान चालू की - मात्र निमित्त ही बदला । १६२.
चाहे जैसी बात व कितनी ही बार कहनेमे आवे लेकिन 'त्रिकालीकी अधिकता कभी नही छूटनी चाहिए'। कथन चाहे जैसा आवे, परन्तु यह बात कायम रख करके ही अन्य सब बाते है - त्रिकालीकी अधिकता कभी नही छूटनी चाहिए । १६३.
देवकी ओर देखो तो देव यह कहते है कि - मै तुमारी सन्मुख नही देखता हूँ, और तुम भी मेरी सन्मुख मत देखो, अपनी सन्मुख देखो ! १६४.
षट्आवश्यक कहे जाते है, परन्तु वास्तवमे तो ये अनावश्यक है। [ श्रावककी भूमिकामे ] विकल्प आता है तो वह किस प्रकारका आता है - ऐसा बतानेके लिए कहनेमे आता है । वास्तवमे तो उजमे भी खेद और दुःख लगता है; स्वभावसुखमे जमते ही विकल्पकी आकुलता भासती है कि - ये आवश्यक आदि भी दुःख