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तत्त्वचर्चा
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भूख-प्यास लगे तो उसको बुझाये बिना चैन नही पड़ता । ऐसे, जो विकल्पमें दुःख ही दुःख लगे तो सुख शोध ही लेवे, उसके बिना चैन ही न पड़े; ऐसा ही स्वभाव है । १४१.
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प्रश्न :- विकल्पमे दुःख ही दुःख लगे - ऐसा जो कहा, तो यह तो नास्तिपक्ष गया ?
उत्तर :- नास्ति भी द्रव्यकी अपेक्षासे है; बाकी तो उस [ पर्याय ] अंशमे दुःख निकलकर सुख प्रकट होता है । और ऐसा दुःख लगे तभी तो द्रव्यकी ओर आएगा । १४२.
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उत्तर :---
प्रश्न :- त्रिकालीमे प्रसरनेमे ज्ञान कारण है या दृष्टि कारण है ? • मुख्यतौर से तो [ ज्ञानीको ] दृष्टि ही कारण है, फिर ज्ञानको भी कहते है; दोनो साथमे ही है । दृष्टि प्रगर जाती है तो ज्ञान भी हो जाता है ।
प्रश्न :
दृष्टि तो जानती नही ! ज्ञान ही जानता है ?
उत्तर :- इस अपेक्षासे [ स्वलक्ष्यी ] ज्ञानको भी कारण कहते है । परन्तु, यथार्थमे तो ऐसे ग्यारह अंगवालेको [ परलक्ष्यी ] ज्ञान तो हो जाता है, दृष्टि नही होती । - इसीसे यथार्थमे तो दृष्टिको ही कारण कहते है । [ यहाँ स्वरूपमे एकाग्रता होनेके विपयके प्रश्नका स्पष्टीकरण दिया है । परन्तु श्रद्धाज्ञानके होनेके विपयमे स्पष्टीकरण नही समझना चाहिए। क्योकि ज्ञानपूर्वक ही श्रद्धान होता है यह त्रिकाली- अटल सिद्धान्त है । ] १४३.
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निर्विकल्प ध्यानके पहले अनेक प्रकारका चितन घण्टो तक चले फिर भी वह निर्विकल्पताका कारण नही है, वह तो अटकाव है । निर्विकल्पता तो अन्दरमे उग्र अवलम्बनसे ही होती है । विचाररूप ध्यान तो रुकावट है,... होता है... आ जाता है.... लेकिन, वह अवलम्बन नही है । अवलम्बन तो अन्दरमे लिया हुआ है, उसमे ही उग्रता होनेपर निर्विकल्पता