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________________ ९८ द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) आनन्द-आनन्द हो जाता है । पीछे शुभाशुभ विकल्प आते है, परन्तु अनुभवमेंसे छूटना न चाहे तो भी छूट जाते है । छूट जाए तो छूटो...मगर 'मै तो यह [ त्रिकाली आत्मा ] ही हूँ। १०८. सब शास्त्र पढ़ लेवें, तो भी अनुभव बिना उसका भाव ख़यालमे नही आता । 'सब अपेक्षा तो जान लेवें,' ऐसे [अज्ञानी ] उसमें [जानपनेमे] ही फॅस जाते हैं । १०९. त्रिकालीका ज़ोर नही तो क्षणिक शुभाशुभमें पूरा का पूरा चला जाता है - क्षणिक दुःख आया तो त्रिकाली दुःख मानने लगे, क्षणिक सुख आया तो त्रिकाली सुख मानने लगे। और जो त्रिकालीमे अपनापन हुआ तो क्षणिक पर्याय जो योग्यतानुसार होनेवाली है वह हो...'मैं' उसमे नही खिसकता । ११०. [ ज्ञाता-दृष्टाका स्वरूप बताते हुआ कहा ] निर्विकल्प अनुभव होते ही ज्ञातादृष्टा हो सकता है। [ सिर्फ ] ऐसे विकल्पसे ज्ञाता मानकर, होनेवाला था सो हुआ, - ऐसा मानकर [ - ऐसे ] समाधानमे (जो) सुख मानते है; वह (सुख) तो जैसा : अघोरी मांस खानेमें, सूअर विष्टा खानेमें, पतंगा दीपकमें सुख मानता है, - वैसा है । निर्विकल्प अनुभव बिना धारणामें ठीक मानना, सुख मानना, यह तो कल्पना मात्र है; वास्तविक सुख नहीं। १११. पू. गुरुदेवश्रीने इतना स्पष्ट कर दिया है कि कमी नहीं है, सूक्ष्म पहलुओंका भी पूरा-पूरा खुलासा [- मार्गका रहस्य खुला ] किया है। [ परमार्थ-परम पदार्थको सम्यक् प्रकारसे दर्शाया है । ] ११२. योग्यता हो तो सुनते ही सीधे अन्दरमें उतर जाते हैं, इसलिए
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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