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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) तो भूल गया ! तो क्या रहा ? - अनादिका जो था वो ही रहा । ९७.
विचार-मननसे वस्तु प्राप्त नहीं होती है । [ अनुभव नहीं होता है ] क्योकि ये पर्यायें बहिर्मुखी, मनके संगवाली हैं; वस्तु अंतर्मुख-ध्रुव है। ९८.
चैतन्यदलमे - असंख्य प्रदेशमें प्रसर जानेसे पर्याय दिखती ही नही है; (अर्थात) ऐसी पर्यायको छोड़कर...ऐसी पर्याय करूँ - ऐसा नही होता । पर्यायमे साम्यभाव आ जाता है । ९९.
प्रश्न :- "किसी जीवके अलावा, सामान्यतः सभी जीवोंको मार्गके क्रमका सेवन करना पड़ता है" [- श्रीमद् राजचन्द्रजीका बोल] 1- इसमे क्या कहना है?
उत्तर :- क्या क्रम ? [ हँसते-हँसते ] कोई जीव सीधा अनुभव करके वस्तुको पकड़ लेता है और बहुतसे जीवोकी परिणति चञ्चल होती है, इसलिए धीरे-धीरे शास्त्र आदिमे रुकते-रुकते इधर (अन्तरमें) ढलते है; इसे क्रमका सेवन कहा । १००
भगवानकी वाणी सुननमे [सुननेके लक्ष्यमे] अपना नाश होता है । जैसे स्त्रीका विषय है वैसे यह भी विषय है। [- परलक्ष्यी सभी भाव, विषयभावके समान ही है, क्योकि परमार्थसे तो परलक्ष्य होनेमे आत्म-गुणका घात ही होता है । ] १०१. .
असलमे बात तो यह है कि सुननमे जो महास्य आता है - वह नही, किन्तु अन्दरसे सहजरूपसे (स्वका) महात्म्य आना चाहिए । (बाहरमें) तीव्र थकावट हो तो महात्म्य अन्दरसे ही आता है। १०२.