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________________ २० द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) थाप देना (स्थापित करना) यही उपाय है । [ अनादि पर्यायबुद्धि सहित मुमुक्षु जीव उपदेशबोधके अनुसार अपनी भूमिका योग्य परिणामसे प्रारम्भ करता है, परन्तु सर्व प्रथम पर्यायमेसे अस्तित्व उठा करके द्रव्यस्वभावमे अस्तित्व स्थापित करना है - ऐसा लक्ष्य प्रारम्भसे ही रहना अत्यावश्यक है, वरना पर्यायबुद्धि दृढ़ हो जानेसे द्रव्यदृष्टि उत्पन्न होनी मुश्किल हो जाती है, और मुमुक्षुतामे ही मनुष्य आयु पूर्ण हो जाती है और भवभ्रमणका छेद नही होता । ] ७०. प्रश्न :- शास्त्रमे तो प्रयत्न करना...प्रयत्न करना, ऐसी बात आती उत्तर :- प्रयत्न करनेके लिए कहनेमे आता है। प्रयत्न होता भी है। लेकिन प्रयत्न भी तो पर्याय है। 'मै तो पर्याय मात्रसे भिन्न हूँ', प्रयत्न क्या करे ? - सहजरूप होता है । प्रयत्न आदिका 'होना' पर्यायका स्वभाव है । 'मैं' उसमें न आता हूँ, न जाता हूँ; 'मैं त्रिकाली हूँ' - ऐसी दृष्टि में प्रयत्न सहज होता है । ७१. विचार-मन्थन भी थक जाये, शून्य हो जाये; तब अनुभव होता है । मन्थन भी तो आकुलता है । एकदम तीव्र धगशसे (ज़ोरसे) अन्दरमे उतर जाना चाहिए । ७२. * प्रश्न :- रामचन्द्रजीको सीताजीके लिए लड़नेका भाव आया; परन्तु धर्मराज (युधिष्ठिर)को द्रौपदीकी साड़ी खीची जानेपर भी बचानेका भाव नही आया - इसका क्या कारण ? उत्तर :- वह तो परिणामोंकी योग्यता ही ऐसी भिन्न-भिन्न होती है। अनेक प्रकारके कषायभावोमेंसे जो होनेवाले है, वो होते है । उनको करें-छोड़ें क्या ? सम्यग्दृष्टिको परिणाम मात्रसे भिन्नता रहती है । 'मैं करनेवाला ही नही हूँ' - ऐसा रहना ख़ास बात है । ७३.
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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