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पूज्य गुरुदेवश्रीके प्रवचन
है !! परमात्मा द्रव्य वस्तु एकमात्र आदरणीय है, अन्य कुछ आदरणीय
नही ।
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वस्तु... वस्तु... वस्तु... शाश्वत आनन्दधामरूप, ध्रुव द्रव्य, यह एक ही लक्ष करने योग्य है । और सब प्रगट हुई पर्याय भी लक्ष करने योग्य नही है । यह अपेक्षासे हेय कहनेमे आती है ।
मुनिको छठवे गुणस्थानमे तीन कष्णयका अभावरूप चारित्र प्रगट है । उसको भी यह तीन कषायका अभावरूप चारित्र उपादेय नही है । अहा... हा... हा..! क्योकि द्रव्य अन्तरमे एकाकार पड़ा है - वही परमेश्वर द्रव्य, त्रिकाली ध्रुव आदरणीय है, अन्य कुछ आदरणीय नही है ।
भगवान ! तू क्या अपूर्ण हो, जिससे तेरेको परके सहारे रहना पड़े ? भगवान आत्मा सत् शाश्वत ध्रुव है । उसके लक्षसे प्रगट हुई पर्याय, सो व्यवहार, भी हेय है । एक चिदानन्द ध्रुव शाश्वत प्रभु, सो निज मन्दिरमे आदरने लायक है । भगवान आत्मा, द्रव्यार्थिकनयका विषय, अर्थात् द्रव्य वस्तु, महा परमेश्वर चैतन्य महाप्रभु, यह ध्रुवमे लक्षकर अर्थात् उसको उपादेयकर, उसका आश्रय करना यही मोक्षमार्ग है, मोक्ष भी उससे होता है; इसलिये यही एक आदरणीय है ।
दृष्टिका विषय
वस्तु त्रिकाली है, जिसके आश्रयसे निर्मल पर्याय होती है। पर्यायके आश्रयसे पर्याय निर्मल नही हो सकती । गुरुके वचनप्रति लक्ष जाता है तब तक निमित्त, शास्त्र, गुरु और ज्ञान सव विनाशी; लेकिन ध्रुवकी ओर नज़र लगे तब ज्ञान अविनाशी होता है । अनुभव और सम्यग्दर्शन अवस्था है । उसको (सम्यग्दर्शनकी पर्यायको) और आत्माको त्रिकाली सम्बन्ध नही है । क्योकि वह (अवस्था) बदल जाती है । दर्शन, निमित्तका स्वीकार नही करता है, परन्तु बादमे उपचारसे निमित्त कहनेमे आता है; पीछेसे ज्ञान निमित्तको जानता है । दर्शनके समय निमित्त नही है । पीछेसे निमित्त कहलाया । निमित्तको रागसे जानता है तब तक ज्ञान विनाशी - अनित्य है । वह (विनाशी ज्ञान ) अविनाशीको लाभ करता नही । वह तो पूर्वका ही उघाड़ ( क्षयोपशम) है। खुदने ही जव स्वयंकी ओर ढलकर