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________________ आध्यात्मिक पत्र उन्मुख होते-होते पूर्ण समाधानरूप अभेद हो जायेगी, ऐसी निःशंक प्रतीति इस दृष्टिमे गर्भित है। ___ मुनिराज, आचार्य भगवानके पास समाधान हेतु जाते है; उस समय भी प्रश्न-विकल्पसे छिटकी हुई जानन क्रिया उनको वर्तती रहती है। परन्तु कचासरूप अशक्तिके कारण प्रश्न-विकल्प क्षणिक लम्बानेसे प्रश्न-क्रिया होती है। समाधान बाह्यसे होगा ही अथवा होना ही चाहिए, ऐसा अभिप्राय मुनिश्रीके प्रश्न-विकल्प समय नही वर्तता । इस विषयके स्पष्टीकरणमे अध्यात्म व द्रव्यनुयोग संबंधित ग्यारह सिद्धांत समाहित है। २. श्रद्धा व ज्ञान - श्रद्धा व ज्ञान भिन्न-भिन्न गुणकी स्वतन्त्र एक ही काले अहेतुक पर्याय है। मृतक वेश्याका चित्र दृष्टान्तरूपे पुस्तकोमें है । भिन्न-भिन्न श्रद्धावाले चार जीवोंको ज्ञानमे निमित्तरूप तो एक ही विषय है परन्तु श्रद्धान भिन्न-भिन्न प्रकारका होनेसे भिन्न-भिन्न परिणति है । निश्चयसे एक ही जीवको एक ही काले श्रद्धा व ज्ञानकी स्वतन्त्र अहेतुक परिणति होती है जो कि एक दूसरेको अकारणीय है । कार्य होनेपर ज्ञान श्रद्धानका कारण हुआ अथवा श्रद्धान ज्ञानका कारण हुआ, ऐसा सम्बन्ध बताया जाता है । ग्यारह अंगधारी मिथ्यादृष्टि धारणाज्ञानमे तत्त्वको परोक्षरूपे यथार्थ जानता है परन्तु श्रद्धाकी पर्यायमें, रुचिमे, उसको अभेद पकड़कर प्रत्यक्ष नही करता अतः दृष्टि मिथ्या बनी रहती है। ३. पुरषार्थ - ‘स्वरूपनीप्यास.' प्यासस्वयंपर्याय-स्वभावहै।वीर्यगुणकी पर्यायमे सदैव पुरुषार्थ होता रहता है। नित्य, सहज, निष्क्रिय, त्रिकाली द्रव्यमे दृष्टि अभेद होनेपर जो पुरुषार्थ होता रहता है, वह स्वआश्रित सहज ज्ञानानन्दी पुरुषार्थरूप पर्यायस्वभाव है। विकल्पात्मक पुरुषार्थ, असहज, कृत्रिम पुरुषार्थ है। सहज द्रव्यस्वभावकी अरुचि होनेसे पर्यायमे सहज पुरुषार्थ नही उघड़ता; अतः मिथ्यादृष्टि नियतवादी एकान्ते कृत्रिम पुरुषार्थ करता रहता है। इस ही कारण
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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