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________________ जाध्यात्मिक पत्र [ ३६ ] ॐ श्री सद्गुरुदेवाय नमः कलकत्ता २७-२-१९६३ ३९ आत्मार्थी धर्मस्नेह | मालूम होता है कारणवशात् निहालभाईके क्षणिक व्यवहारसे विरक्ति हो गई है । विरक्ति तो सदैव उपादेय ही है व सहज विरक्ति मुमुक्षुओका ध्येय भी है । पूज्य गुरुदेव श्रीकी आँखमे 'नीडलीग' की आवश्यकता नही रही, जानकर आनन्द हुआ । व पूज्यश्री का फाल्गुन सुद ६ से तीन माह वास्ते सौराष्ट्रमे विहार होगा, जाना । पुण्ययोग होनेसे उनके दर्शन, प्रवचनका पुनः लाभ मिल सकेगा । आपकी दी हुई 'बनारसी विलास' पुस्तकका वांचन चल रहा है । लिखा है : ― "एक निद शरीरमे ऐते जीव बखान तीन कालके सिद्ध सब एक अश परिमान ।" "सो पिण्ड निगोद अनन्तराम, जिवरुप अनन्तानन्त मास. भर रहे लोक नभमे सटीव, ज्यो घड़ा माहि भर रहे घीव ।" केवलीगम्य यह अनन्तता साधकके अनुमानगम्य ज्ञानमे प्रत्यक्षवत् है । निष्कम्प गम्भीर ध्रुवस्वभावआश्रये सहज ऊण्डे-ऊण्डे उतरते-उतरते यह ज्ञान हम सबको प्रत्यक्ष होवे, यह ही भावना । धर्मस्नेही निहालभाई आत्म वस्तु जो ज्ञानानन्द सहजानन्द प्रभु है, उसका जिसे ज्ञान हुआ उसे आत्मा भासित होती है । - - पूज्य गुरुदेवश्री
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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