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________________ ध्यान - शास्त्र १५५ व्यापारको रोकने की बड़ी जरूरत है और वह तभी रुक सकता है जब कि इन्द्रियो तथा मनको जीतकर उन्हें अपने आधीन किया जाय । स्ववित्तिका स्पष्टीकरण १ वपुषोऽप्रतिभासेऽपि स्वातन्त्र्येन चकासतो I स्वयं दृश्यत एव हि ॥ १६८ ॥ चेतना ज्ञानरूपेयं 'स्वतन्त्रतासे चमकती हुई यह ज्ञानरूपा चेतना शरीररूपसे प्रतिभासित न होने पर भी स्वयं ही दिखाई पड़ती है ।' व्याख्या - यहाँ, पूर्वपद्यमे उल्लिखित स्वसवित्तिको स्पष्ट करते हुए, बतलाया गया है कि यह सवित्ति ज्ञानरूपा चेतना है जो कि परकी अपेक्षा न रखते हुए स्वतन्त्रताके साथ चमकती हुई स्वय ही दिखाई पडती है, शरीररूपसे उसका कोई प्रतिभास नही होता । २. समाधिमे आत्माको ज्ञानस्वरूप अनुभव न करनेवाला योगी आत्मध्यानी नही 'समाधिस्थेन यद्यात्मा बोधात्मा नाऽनुभूयते । ४. ' तदा न तस्य तदुध्यान मूर्च्छावन्मोह एव स ॥१६६॥ समाधिमें स्थित योगी यदि श्रात्माको ज्ञानस्वरूप अनुभव नहीं करता तो समझना चाहिये उस समय उसक आत्मध्यान नहीं किन्तु मूर्च्छावाला मोह ही है ।' १ मु चकासते, सिजु चकास्ति च । २ मु रूपेऽय । ३ सि जु आत्मना दृश्यतेव । ४ समाधिस्थस्य यद्यात्मा ज्ञानात्मा नाऽवभासते । न तद्ध्यान त्वया देव । गीत मोहस्वभावकम् ||५|| - ध्यानस्तवे, भास्करनन्दी ५. मु मे मूर्च्छावान् ।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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