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ध्यान-शास्त्र
अकारादि-हकारान्त-रेफमध्यान्तविन्दुक । ध्यायन् परमिदं बीजं मुक्त्यर्थी नाऽवसीदति ।।
-आर्ष २१-२३१ 'अहं इस परब्रह्मके वाचक अक्षरब्रह्ममे 'अ' अक्षर साक्षात्
मूर्ति के रूपमे स्थित सुखका कर्ता है, स्फुरायमान रेफ (") अक्षर अविकल रत्नत्रयरूप है-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको प्रतिमूर्ति है और 'ह' अक्षर मोहसहित सारे पापसमूहके हताका रूप धारण किये हुए है। इस तरह अभिन्नाक्षर पदके रूपमे यह वीजाक्षर स्मरणीय है। इस पदके 'अ' और 'ह' अक्षरोके मध्यमे वर्णमालाके शेष सब अक्षर वास करते हैं और इसीसे मुनियोने इसे अनघ शब्दब्रह्मात्मक बतलाया है। यह उज्ज्वल विन्दुको धारण किये हुए 'अर्धचन्द्र' कलासे युक्त और रेफसे व्याप्त सकिरण ज्योति पद परब्रह्मके ध्यानको ध्वनित करता है-सिद्ध परमात्माके ध्यानकी अनुभूति कराता है। जैसा कि श्रीकुमारकविके निम्न वाक्योसे प्रकट है.
अकारोऽय साक्षादमृतमयमूर्तिः सुखयति । स्फुरद्रेको रत्नत्रयमविकल सकलयति । समोहं हकारो दुरितनिवहं हति सहसा । स्मरेदेवं बीजाक्षर [पद मभिन्नाक्षरपदम् ॥११॥ दधति वसति मध्ये वर्णा प्रकार-हकारयोरिति यदनघ शब्दब्रह्मास्पद मुनयो जगु । यदमृतकला विभ्रबिन्दूज्वला रचिचिषं ध्वनयति परब्रह्म ध्यान तदस्तु पद सुदे ॥११॥
आत्मप्रबोध हृत्पंकजे चतुष्पत्रे ज्योतिष्मन्ति प्रदक्षिणम् । अ-सि-आ-उ-साऽक्षराणि ध्येयानि परमेष्ठिनाम् ॥१०२॥