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धर्माभ्युदय महाकाव्य थई गयां अने तेमनो जैन तेम ज जैनेतर विद्वानोए सारो सत्कार कयों. ए जोई म्हारो उत्साह ए कार्य करवा तरफ वधारे वधवा लाग्यो. म्हें एवा अनेक ग्रन्थोनां संशोधन-संपादननां मनोरथो करवा मांड्यां. ए प्रकारना प्रोत्साहक वातावरण नीचेनो वडोदरानो अमारो निवास जो वधारे समयसुधी लंबायो होत तो २-३ वर्ष दरम्यान १५-२० प्रन्थो प्रसिद्धिमा मूकी देवानी म्हारी भावना कदाच सहेजे सफळ थई जात. परंतु ते पछीना ग्रीष्मकालना प्रारंभ दरम्यान, मुनिराज (हवे आचार्य) श्रीवल्लभविजयजी महाराजनी आग्रह भरेली विज्ञप्ति अने प्रेरणाथी प्रवर्तकजी महाराजनो मुंबई तरफ विहार करवानो अने आवतुं चोमासु त्यां रहेवानो विचार थयो. प्रवर्तकजी महाराजना अन्तेवासमा रहेनारा अमारामांना घणा खराए मुंबई जोयु न हतुं तेथी अमने पण ए जोवानी इच्छा थई आवी हती. एटले अमे बधा मुंबई तरफ विहार करवा सम्मत थई तैयार थया. यथाक्रमे भरुच, सुरत, नवसारी, वलसाड विगेरे स्थानोमां थता, बेक महिनाना प्रवास पंछी मुंबई पहोंच्या. प्रवर्तकजी महाराज तथा श्रीविजयवल्लभसूरिजी आदिनो बनेलो १७-१८ साधुओनो अमारो ए समुदाय गोडीजीना जैन उपाश्रयमा वर्षावास करवा स्थिर थयो.
म्हारी रुचि अने स्वभाव प्रमाणे म्हने गोडीजीना उपाश्रयतुं अने तेनी आसपासनु अस्वच्छ वातावरण जराय न गम्यु. खास करीने शौचादि जवा माटेनी जे व्यवस्था ए उपाश्रयमा हती तेथी तो हुं अत्यंत त्रासी उठ्यो. २-३ दिवस सुधी तो हुं शौच जन जई शक्यो. मुंबईमां क्याय पण शौच माटेनी स्वच्छ, एकान्त अने खुल्ली जग्या मळवी अशक्य छे, एम म्हने ज्यारे जणायुं त्यारे मुंबई आववानो अने जोवानो म्हारो जे उत्साह थयो हतो ते विषादना रूपमा परिणत थयो. परंतु साथे एक अन्य वृद्ध मुनि हता जे म्हारा प्रत्ये बहु ज ममत्व अने आदरभाव. धरावता हता, तेमणे म्हने वालकेश्वरमा त्रण बत्ती पासे आवेला जैन मन्दिरनो उपाश्रय बतान्यो अने नेपियन सी रोडनी नीचे आवेला दरियाना खुल्ला खडको देखाड्या के ज्या आगळ शौचक्रियाने योग्य एकान्त अने स्वच्छ जग्या सुलभ हती. म्हें म्हारी मुस्केली अने मनोवृत्ति प्रवर्तकजी महाराजने निवेदन करी. तेमणे तरत ज प्रसन्नताथी म्हने वालकेश्वरमा जईने रहेवानी अनुमति आपी. पेला वृद्ध मुनिने पण थोडा समय माटे म्हारी साथे रहेवा मोकल्या. जेटला समय सुधी प्रवर्तकजी महाराज मुंबईमा रह्या (लगभग ६-७ महिना) तेटलो बधो वखत म्हें वालकेश्वरमां ज व्यतीत कर्यो. अवार-नवार तेमने वंदन विगेरे करवा हुं गोडीजी जतो-आवतो अने म्हारा कार्यक्रमथी वाकेफ करतो रहेतो. समुदायमाथी अन्यान्य साधुओ पण वारंवार वालकेश्वरना उपाश्रयमा आवता-जता रहेता अने म्हने पोताना सहवासनो लाभ आप्यां करता.
वडोदराना छेल्ला निवास दरम्यान म्हें जे साहित्यिक आलेखन अने संपादन कार्य करवानी कल्पना करी हती ते, त्यांथी विहार करीने मुंबई आववानो प्रसंग उपस्थित थतां, चुंथाई गई. अने जे ग्रन्थो प्रेसमां चालू हता तेना कार्यमां पण शिथिलता आवी गई. परंतु मुंबईना निवास दरम्यान म्हने बीजा ज प्रकारना वातावरण अने विद्वत्समागममा आववानो अनेरो लाभ मळवा लाग्यो अने तेना लीघे म्हारा जीवन विषेना समग्र दृष्टिकोणमा, धरमूळ परिवर्तन करनारां अकल्पित आन्दोलनो, म्हारं मानसिक धरातळ अनुभववा लाग्यु. जे जैन - विद्वानोना विशिष्ट समागममा आववानो म्हने अहिं प्रसङ्ग मळ्यो तेमां एक तरफ पंडितवर्य श्री नाथूरामजी