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उपशमन चाहते थे जो कि अनेको वखेडो श्रौर व्यथाओ का जनक था । आचार्यश्री बहुत स्नेहिल स्वर से सबको समझा रहे थे और हृदय - मिलन का वातावरण विनिर्मित कर रहे थे । रात के करीब वारह बज चुके थे । सत प्राय सो चुके थे और बाकी शयन की तैयारी मे थे । आज श्राचार्यश्री यहा करीब बारह मील की यात्रा करके श्राए थे । तब भी उन्हे विश्राम के लिए अवकाश नही था । वे अब तक निरन्तर कार्यं निरत थे । इस झझट को मिटाने में इतनी अधिक रात जाने पर भी उन्हे उसी अध्यवसाय से निमग्न देखकर अनायास ही भर्तृहरि की सूक्ति मेरे घरो पर नाच उठी ।
"मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुख न च सुखम् "