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________________ भक्तामर स्तोत्र। बक्तुं गुणान् गुणसमुद्र शशांक कांतान्, कस्ते क्षमा सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुझ्या । कल्पातकालपवनोइतनचक्र, कोवा तरीतुमलमबुनिधि भुजाभ्याम् ॥४॥ वक्तुं कहने को गुणानं गुणों को। गुणसमुद्र हे गुणों के सागर। शशांक चांद । कांत-सुन्दर । का कौन । ते तुम्हारे । क्षमः - समर्थ । सुरगुरुवृहस्पति । प्रतिमा -समाम। अपि भी बुद्धया = बुद्धिसे । कल्पांतकाल प्रलयकाल पवन वायु । उद्धत -उछाले । नक - मगरमच्छ । चक्र समूह । का-कौन । पा भथवा । तरीतुं तैरने को । मलं समर्थ । मम्वुनिधि समुद्र । भुजाभ्याभुजाओं से (हार्थो से)। - अन्वयार्थ हे गुणों के सागर! चान्द के समान मनोहर तेरे गुणों के कहने को बुद्धि से वृहस्पति के तुल्य भो कौन पण्डित समर्थ है। प्रलय काल की वायु से उछल रहे है नाकों के समूह जहां ऐसे समुद्र को भुजावों से कौन तैर सकता है। भावार्थ-यहां आचार्य कहते हैं कि हे गुणों के सागर भाप के गुण असंख्य हैं जब वृहस्पति सारखे बुद्धिमान भी आप के गुण वर्णन करने में अशक्त हैं वव मेरी । अल्पबुद्धि कर भापके गुणों का वर्णन करना हाथों से अगाध समुद्र के तरने के समान है। गुणसमुद्र तुम गुणअविकार । कहत न सुरगुरु पावे पार ॥ . प्रलय पवन उद्धत जलजन्ता जलधि तिरे को भुजबलवन्त॥॥. ४--गुणसमुद्र गुणों का सागर । अविकार -विकार से रहित (शुद्ध)। . सुरगुरु बृहस्पति । पवन वायु । उद्धत -उछलते । जलजन्त -जल के जीव ! जलधिसमुद्र ।भुज बांह से । बलवन्त बलपाला ॥
SR No.010634
Book TitleBhaktamar Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Jaini
PublisherDigambar Jain Dharm Pustakalay
Publication Year1912
Total Pages53
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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