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भक्तामर स्तोत्र ।
अंभोनिधौ चुभितभोषणनक चक्र, पाठीन पीठभय दोल्वणवाडवाग्नौ । रंगतरंगशिखर स्थितयानपाचा,.. स्वासं विहाय भवतः स्मरणाद्व्रजन्ति 88
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| मम्मोनिधी - समुंद्र | शुभित = क्षोभवाले | भीषण भयं देने वाले । नक्रं - . नाक्कू । चक्र - समूह। पाठीन = एक किसम की मछली । पीठ पीढ़ा। भयद - - डराने वाली । उल्षण - प्रचण्ड । वडवाग्नि समुद्र की आग | रंगत् = नाचती । तरंग - लहरें । शिख़र - घोटी | स्थित ठहरे हुए पानपात्र - जहाज । वासं भय । विदाय - छोड़ । भवतः - तुम्हारे । स्मरण - याद करणा । ब्रजन्ति = जाते हैं ॥
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अन्वयार्थ ---हे भगवन् क्षोभ को प्राप्त हो रहे हैं भयानक नाकूचों के समूह और मछ जल जीव और भय देने वाली है बडवा भाग जहां ऐसे समुद्र में नाचती हुई लहरों के ऊपर स्थित है, जहाज जिनके ऐसे भी आपके स्मरण से (याद करणे से) मय को छोड़ कर चलते हैं |
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भावार्थ-हे भगवन अति गंभीर समुद्र जिल में नाकूचों और बड़े ल
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और बड़े सांपों के समूह भरे हुए हो जिसकी लहरें मीलों तक उपर उछल रही हों और जहां जल के जलाने वाली पड़वा अग्नि चल रही हो जिस को जहाज और . अग्न बोट भी नहीं अबूर कर सकते जैसे कि सौथपोल (दक्षिणी कुतव) ऐसे मलंय समुद्र में यदि आपके भक्त गिर जायें तो आपके नामरूपी तारण के माभय से उस को तैर कर पार हो जाते हैं |
नोट- श्री पालमट आदि अनेकापार हुए हैं ।।
नक्र चक्र मगरादि, मच्छकर भय उपजावे ।
जामें बड़वा अग्नि, दाहसे नीर जलावे. ।, पार न पावें जास, थाह नहिं लहिये जाकी । गर्जे जो गम्भीर, लहर गिनती नहीं ताकी सुख सो तिरे समुद्र को, जे तुम गुण सुमराहिं । चपल तरह के शिखर पार जान ले जाहिं ॥ ४४ ॥
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