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४४. . . . भक्तामर स्तोत्र । वल्गत्तुरंगगजंगर्जितभीमनाद, - मानौ बलं बलवतामपि भूपती नाम् । उद्यहिवाकरमयूखशिखा पविई, त्वत्कीर्तनात्तम वाशुभिदामुपैति ॥ ४२ ॥ .
बलंगा नाचते। तुरंग घोड़ा। गज = हाथी ! गर्जित गाजता भीम .. भयंकर । नाद-शब्द। आजि=युद्ध बल = फौज । बलवान् = जोरावर । अपि । भी भूपति राजा । उद्यत् = ऊमरहा। दिवाकर -सूर्य । मयूख-किरण शिखाज्वाला । अपविद्ध-फूंकागया। त्वत् = तेरा। कीर्तन कथन । तम् = अन्धेरा ! इवजैसे। आशु-जल्दी । मिद-भेद । उपैति प्राप्त होय है । . . .,
अन्वयार्थ हे प्रभो चल रहे नाचते बोड़ो से और हाथियों के गर्जन से भय-... 'कर शब्द वाली बलवान् राजों की फौज युद्धमैं आपके नामोच्चारण से ऊगते हुए सूर्य की किरणों को शिखाओं ले वींधे हुए अन्धेरे के समान जल्दी नष्ट हो जाती है......
__ भावार्थ-यहां भाचार्य कहे हैं कि हे भगवन् यदि कोई गनीम बहुत बड़ी फौज का अमघोह लिये हुए घोड़े दौड़ाता हुआ हाथियों को गरजाता हुभा' इस कदर गरद गुबार उड़ाते हुए कि सूर्य भी नजर न पड़े जिसको देखकर बड़े बड़े,मानी. राजानों के मान गलजावें यदि आपके भक्त के सन्मुख आवे तो जैसे सूर्य के सम्मुख अन्धेरा नहीं ठहरता इली प्रकार आपके आश्रित के मुकाबले से वह भाग जाता है। . .
जिस रण मोहि भयानक, शब्द कर रहे तुरंगम, घन से गज गरजाहि, मत मानो गिर जंगम । . अति कोलाहल माहि, बात जहां नाहि सनीज, राजन को परचण्ड,देखबल धीरज छीजे। नाथ तुम्हारे नाम से, सो छिनमाहिं पलाय, ज्यूं दिनकर परकाशतें, अन्धकार मिटजाय ॥४२॥.