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________________ भकामर स्तोत्र। ३३ . छत्रत्रयं तव विभाति शशांक कांत, । मुच्चैः स्थितं स्थगितभानु करप्रतापम् । मुक्ताफलप्रकरजालविवद्धशोभं। . प्रख्यापयल्धिजगतः परमेश्वरत्वम् ।३१। .' नवयं-तीनछत्र । तब = तुम्हारे । विभाति = शोमते हैं । शशांक-चांद। कांत-सुन्दर । उच्च उचा। स्थित मौजुद । स्थगित हकदेना। भानु-सूर्य ।। । करकिरणे । प्रनाप-प्रकाश । मुक्ताफल मोती। प्रकर- समूह । विशुम वढी-1-25 शोभ-शोमारा प्रयापयत् कहना हुमा।विजगतः -त्रिलोकी का परमेश्वरत्वपरमेश्वरपणा। मन्वयार्थ -हे प्रभो चांद के तुल्य कांतिवाले होने से मनोहर वे स्थित डकदिया है सूर्य की किरणों का तेज जिन्हों ने और मोतियों की लड़ियों के समूह ने बढी है शोमाजिनकी तथा तीनलोको की परमेश्वरता ( स्वामिता) को प्रकट करते हुए मापके तीन उन शोमते हैं। भावार्थ-एक लोक का जो स्वामी होता है उसके सिर पर एक छत्र शोमता है। भौर भगवान के सिर पर तीन छत्र होते हैं सो भाचार्य ने यहां यह प्रकट किया है कि यह मोतियों की लड़ियों से जड़े हुए तीन छत्र भगवान के सिरपर दुलते हुए यह बतळा रहे हैं कि यह तीन लोक के स्वामी हैं। ऊंचे रह सूर दुति लोप । तीन छन तुम दीपै अगोप॥ तीन लोक की प्रभुता कहें। मोती झालर सो छविलहें ॥३१॥ १५-पूर-सर्व इति (पति) शोभा भगोप-प्रकर ।
SR No.010634
Book TitleBhaktamar Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Jaini
PublisherDigambar Jain Dharm Pustakalay
Publication Year1912
Total Pages53
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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