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भक्तामर स्तोत्र |
त्वामव्ययं विभुवचिंत्यमसंख्यमाद्यं, ब्रह्माणमीश्वर सनंत अनंग केतुम् ।
योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं, ज्ञानस्वरूपमनलं प्रवदंति संतः |२४|
त्वां - तुझे । अव्यय - अविनाशी | विभु = व्यापक । अचिन्त्य - जिस का चितन न हो । असंख्य = अनगिन । आय = आदिका । ब्रह्मन् ब्रह्मा जी । ईश्वर परमेश्वर । अनन्त - जिस का अन्त नहीं । अनङ्गकेतु - महादेव | योगीश्वर योगि. राज । बिदितयोग : 1- जाना है योग जिसने । अनेक-अनेक रूप। एक = अद्वितीय । ज्ञानस्वरूप = ज्ञान (बोधरूप) | अमल - शुद्ध । प्रवदन्ति कहते हैं । संतः सन्त ( सज्जन ) ॥
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अन्वयार्थ - हे प्रभो संत जन तुझे अविनाशी व्यापक, अवित्य असंख्य आद्य ब्रह्मा ईश्वर अनन्त विष्णु काम शत्रु (शिव) योगीश्वर योग के जानने वाले अनेक एक ज्ञान रूप अमल (शुद्ध) कहते हैं |
भावार्थ- हे प्रभो संतजन तुझे अविनाशी सर्व व्यापक अचित्य भसंख्य आद्य (पहिला) ब्रह्मा ईश्वर 'अनंत अनंगकेतु शिव योगीश्वर विदितयोग अनेक शान स्वरूप शुद्ध कहते हैं |
अनन्त नित्य चित्तकी अगम्यरस्य आदि हो । असंख्य सर्वव्याप ब्रह्मविष्णु हो अनादि हो ॥
महेश काम केतु योग ईशा योग ज्ञान हो । अनेक एक ज्ञान रूप शुद्ध सन्त मान हो ॥२४॥
२४ - रम्य = मनोहर ॥