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२२ भक्तामर स्तोत्र। ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कतावकाश, नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु। तेनः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्वं, नैवं तुकाचशकले किरणा कुलेऽपि ॥२०॥
शानं शान । तथा जैसे । त्वयि आप में । विमाति-शोभता है। कृत किया गया। अवकाश जगह । न नहीं । एवं ऐसे। तथा तैले । हरि-विष्णुहर-शिव । नायक मालिक । तेजा-तेज । स्फुरन् =चमकीली। मणिरत्न । याति पाता है । यथा- जैसे। महत्त्व घडाई । न-नहीं। एवं =ऐसे । कावकच्च शकल-टुकड़ा। किरण- किरण । आकुल-ध्यास अपि-भी॥
अन्वयार्थ हे जिनेन्द्र कृतावकाश शान जैसे पाप में प्रकाशता है वैसे हरि हरादिक देवों में नहीं जैसे प्रकाशमान मणियों में तेज महत्व को प्राप्त होता है वैसे किरणों से व्याप्त काच के खण्ड में नहीं प्राप्त होता ।
भावार्थ-हे भगवन् जैसे जितनी चमक रत्नों में होती है उतनी कंच के टुकड़ों में नहीं होतो वैसे ही जैसा अखण्डित शान आप में दैदीप्यमान है वैसा हरि हरादिक देवों में नहीं है।
जो सुबोध सोहे तुम माहिं। हरिहरादिक में सो नाहि ॥ जो युति महारस्न में होय। काच खंड पावे नहिं लोय ॥२०॥
२०-सुबोधः सुशान।