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भक्तामर स्तोत्र। नित्योदयंदलितमोहमहान्धकारं, गम्यं न राहुबदनस्थ नं वारिदानाम् । विभाजते तव मुखान्जमनल्पकान्ति, विद्योत यज्जगदपूर्वशशाङ्कबिम्बम् ॥१८॥
नित्योदय - सर्वकाल में ऊगा । दलित-दला गया । मोह-महान । महान्धकार बड़ा भारी अन्धेरा । गम्य प्राप्त होने योग्य । न - नहीं। राहुवदन - राहु का मुख । न-नही । वारिदम्वादल । विभ्राजते । शोभता है । तव तुम्हारा। मुखाजम्मुखरूपकमल । अनल्प -बहुत कांनि शोमा। विद्योत -प्रकाश । जगत् विश्व । भपूर्व = नया । शशांकबिम्ब- चन्द्रमण्डल |
अन्धयार्थ-हे प्रभो! सदा उगा हुआ नाश कर दिया है मोहरूप महान् अन्धकार जिसने राहु के मुख में न माने वाला, न बादलों से ढका जाने वाला तथा बड़ी शोभा वाला आपका मुख रूप कमल जगत को प्रकाशता हुमा एक नया चन्द्र मण्डल है ॥
भावार्थ-चांद कृष्ण पक्ष में क्षीण होय तथा शुक्ल में बड़े और पूर्णमासी को राहु से प्रसा जाय । और आपके मुख में यह कोई भी दोष नही सो आपका मुख एक विलक्षण चन्द्रमा है । अर्थात् किसी काल में भी नहीं मंद होय है ज्योति जिल की ऐसे माप जगत् को प्रकाश करने वाले एक अद्भुत जाति के चन्द्रमा है ॥
सदा उदित विदलित तम मोह। विघटतमेघ राहु अविरोह ॥ तुम मुख कलम अपूर्व चन्द। जगत विकाशी ज्योति अमन्द ॥१८॥ ।
। १८-तम अंधेरा। मोह = अज्ञान । विघटित अलग । भविरोह-ढका जाना अपर्ध चन्द्र-मया चान्द । विकाशी-प्रकाशने पाला । भमंद-म'