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________________ भक्तामर स्तोत्र | वक्चं क्व ते सुरनरोरगनेचहारि, निशेषनिर्जितनगचितयोपमानम् । बिम्बं कलंकमलिनंक्व निशाकरस्य, भवतिपांडपलाशकल्पम् ॥ १३ ॥ यद्दासरे चक्रं - मुख । क्व कहां । ते तुम्हारा । सुर - देवता। नर = मनुष्य । उरग - सांप | नेत्र = भांख | हारि मनोहर । निःशेष - सकल । निर्जित = जीत लिया। जगत्रितयतीन लोक । उपमान = उपमा । बिंघ = प्रतिबिम्ब । कलंक मलिन = कलंक से मैला । क्व - कहां । निशाकर = चांद | यत् = जो। वासर - दिन | भवति होता है। पांडु - पोला C १५ ES पलाश - पचा। कल्प = समान ॥ अन्वयार्थ - हे भगवन् देवता, मनुष्य और सर्पों के नेत्रो को हरणे बाला, भौर जीत लीनी है तीन जगत की उपमायें जिस ने ऐसा आपका मुख कहां और वह कलंक से मैला चांद का प्रतिबिंब कहां जोकि दिन में पीले पत्ते के समान होजाता है । भावार्थ- हे भगवन् आपके रूप की सुन्दरता ने जितने देव मनुष्य और सर्पादि तिर्य हैं सर्व के नेत्र और मन हर लिये हैं हम कचि लोग सब से बढ़ कर चांद की उपमा मच्छी मानने हैं परंतु यदि हम उस की उपमा भी आपके मुख को देवें तो पूर्णमाशि का पूरा चांद भी कलंकित भालता है और दिन में पीले पत्ते की तरह चमक रहित होजाता है आपका सुख निकलंक सदा दैदीप्यमान हैं सां चांद को भी जीतने वाला है पल तीन लोक में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जिस की उपमा आपके मुख को देसक इसलिये आपका मुख अनुपम है । नोट- पलाशशब्द का अर्थ ढाकाभी है पत्र भी है सो पांडुपलाश का अर्थ पीतपत्र होना चाहिये सोई हमने ठोक कर दिया है। कहां तुममुख अनुपम अधिकार । सुर नर नाग नयन मनहार ॥ कहां चन्द्र मण्डल सकळंक । दिन में पीत पत्र सम रंक ॥ १३ ॥
SR No.010634
Book TitleBhaktamar Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Jaini
PublisherDigambar Jain Dharm Pustakalay
Publication Year1912
Total Pages53
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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