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गुणोंमें अनुरागको, 'तदनुकूल वर्तनको अथवा । उनके प्रति गुणानुरागपूर्वक आदर-सत्काररूप प्रवृत्तिको. कहते हैं, जो कि शुद्धात्मवृत्तिकी उत्पत्ति एवं रक्षाका साधन है। स्तुति, प्रार्थना, वन्दना, उपासना, पूजा, सेवा, श्रद्धा और न आराधना ये सब भक्तिके ही रूप अथवा नामा
तर हैं । स्तुति-पूजा-वन्दनादि रूपसे इस भक्तिक्रियाको . सम्यक्त्ववर्द्धिनी क्रिया? बतलाया है, 'शुभोपयोगि चारित्र' लिखा है और साथ ही ‘कृतिकर्म . भी लिखा है जिसका अभिप्राय है ।
पापकर्म-छेदनका अनुष्ठान'। सद्भक्तिके द्वारा 8 औद्धत्य तथा अहंकारके त्यागपूर्वक गुणानुराग
बढ़नेसे प्रशस्त अध्यवसायकी-कुशल परिणामकी-उपलब्धि होती है और प्रशस्त अध्यवसाय अथवा परिणामोंकी विशुद्धिसे संचित कर्म । उसी तरह नाशको प्राप्त होता है, जिस तरह। Ruඝකෙකුෂ්කකකකකකෙකෙකෙකෙකයූ
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