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(३८) nnnnnnnnnnnnn
स्वात्मास्थित-कृतकृत्य हुआ निज__ पूर्ण-स्वार्थको अपनाता ॥ कर्म-नाशसे उस मुसिद्धके
क्षुधा-तृषाका लेश नहीं, नाना-रस-युत अन्नपानका, . if अतः, प्रयोजन शेष नहीं।
नहीं प्रयोजन गैन्ध-माल्यका हु अशुचि-योग जब नहीं कहीं; नहीं काम मृदु-शय्याका जव
निद्रादिकका नाम नहीं ।
१ संपूर्ण विभाव-परिणतिको छोड़कर सदाके लिये अपने स्वरूपमें स्थित हो जाना ही आत्माका ॥ वास्तविक स्वार्थ है-स्वप्रयोजन है। २ कर्पूरादि सुगन्ध द्रव्यों और पुष्प अथवा पुष्पमालाओंका।
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